Sunday 30 March 2014

अपने सारे ज़ख्म दिखाकर लौटुंगा,
अपनी ग़ज़लें उसे सुनकर लौटुंगा.

उसका लौट के आना मुमकिन नहीं मगर,
फिर भी मैं आवाज़ लगाकर लौटुंगा.

मौसम के गुस्से ने जिसको सुखा दिया,
उस दरिया की प्यास बुझाकर लौटुंगा.

शायद मैं ही कर पाऊं ताबीर उन्हें,
उसकी नींद से ख़्वाब चुराकर लौटुंगा.

यादों की दरगाह से उसकी ख़ातिर मैं,
दुआ में अपने हाथ उठाकर लौटुंगा.

जिनको बुझना पड़ा हवा की साज़िश में,
उन दीयों को फिर से जलाकर लौटुंगा.

इश्क़ में जान गँवाने की भी क़ीमत है,
यही बात उसको समझाकर लौटुंगा.

Monday 24 March 2014

मुझे आँधियों में जो चलना पड़ेगा,
हवाओं को रुख भी बदलना पड़ेगा.

मुझे बेड़ियों में जकड़ तो रहा है,
तुझे मेरे पांवों से चलना पड़ेगा.

तू सूरज की मानिंद उग तो गया है,
मगर शाम होते ही ढलना पड़ेगा.

बना मोम का दिल तभी जानता था,
उसे जलते जलते पिघलना पड़ेगा.

जिसे चाहते हो उसे गर है पाना,
तुम्हें ख़ुद से बाहर निकलना पड़ेगा.

लिखा नाम तेरा मुझे कब ख़बर थी,
उन्हीं काग़ज़ों को मसलना पड़ेगा.

अगर धूप तू है मेरे इस सफ़र की,
तुझे मेरे साए में ढलना पड़ेगा.


Sunday 23 March 2014

यहाँ वहां से लौट के मुझमें आना है,
तन्हाई का कहाँ पे ठौर ठिकाना है.

सुनती और सुनाती मुझको ख़ामोशी,
बिन अल्फ़ाज़ों का मेरा अफ़साना है.

सहराओं के बाद नज़र जो आता है,
उस दरिया से ही अपना याराना है.

दरवाज़ों की कुंदी पर तो ताले हैं,
घर के भीतर सदियों का वीराना है.

वाकिफ़ हैं मेरी मेहमान-नवाज़ी से,
दुःख दर्दों का घर पर आना जाना है,

उम्र काट ली इसमें पता नहीं कैसे,
जान के ये भी बदन मेरा  बेगाना है.

ख़ुद की धड़कन ख़ुद सुनकर ख़ुश होता है,
दिल मेरा दीवाना है, मस्ताना है.

Saturday 22 March 2014

वक़्त की हर सच्चाई अच्छी लगती है,
अच्छों को अच्छाई अच्छी लगती  है.

कहाँ मिला करते हैं ऐसे लोग जिन्हें,
भीड़ में भी तन्हाई अच्छी लगती है.

धूप में अक्सर ये होता है पेड़ों को,
अपनी ही परछाई अच्छी लगती है.

हाथ थाम लेता है कोई जब आकर,
रस्तों की लम्बाई अच्छी लगती है.

जुड़ जाता है नाम तेरा जब भी मुझसे,
मुझको हर रुसवाई अच्छी लगती है.

पानी की जब बूँद नहीं होती ख़ुद में,
कूओं को तब खाई अच्छी लगती है.

राई भी जब ख़ुद पहाड़ बन जाती है,
तब पहाड़ को राई अच्छी लगती है.

Friday 21 March 2014

हर सुख माना ख़ुद के अन्दर मिलता है,
लेकिन ख़ुद से दूर निकल कर मिलता है.

कौनसा मक़तल है मैं जिसमें रहता हूँ,
हर ख्वाहिश का कटा हुआ सर मिलता है.

यही सोच कर किसी की नेकी मिल जाए,
दरियाओं के पास वो अक्सर मिलता है.

दीवारों पर धूप मुझे जब लिखती है,
रोता हुआ मुझे मेरा घर मिलता है.

यही सोच कर मुझको कभी उठा लेना,
रस्ते में भी पड़ा मुक़द्दर मिलता है.

उम्र क़ैद पर फ़क्र अँधेरे करते हैं,
नींव में जब पत्थर से पत्थर मिलता है.

सफ़र में तुमको पाया तो ये लगा मुझे,
सहराओं के बाद समंदर मिलता है.

मक़तल (क़त्लगाह या वध स्थल)

Thursday 20 March 2014

मैं ज़मीर के आसमान पर होता हूँ,
जब क़ायम अपने बयान पर होता हूँ.

जुबां पर मेरी नाम जो उसका आता है,
मैं भी तब उसकी ज़ुबान पर होता हूँ.

दूर रहे तू मुझसे या तू पास रहे,
हर सूरत, मैं इम्तिहान पर होता हूँ.

जब ख़ुद में तुझको आवाज़ लगाता हूँ,
मस्ज़िद से आती अज़ान पर होता हूँ.

क़दम चूमने की ख्वाहिश में अक्सर मैं,
तेरे दर के पायदान पर होता हूँ.

पानी की मानिन्द है मेरी फ़ितरत भी,
जब भी  बहता हूँ, ढलान पर होता हूँ.

किसी भी रस्ते से तू गुज़रे मैं लेकिन,
तेरे क़दमों के निशान पर होता हूँ.

Wednesday 19 March 2014

नज़रों में इस जहान के अँधा दिखाई दे,
जिसकी नज़र में तू हो उसे क्या दिखाई दे.

जब रहमतें अता हों तेरी डूबते हुए,
दरिया में कोई दूसरा दरिया दिखाई दे.

मंज़र के बदलने का कोई सिलसिला नहीं,
चारों ही तरफ़ एक सा जलवा दिखाई दे.

दीवानगी का उसपे असर इस क़दर हुआ,
हँसता दिखाई दे, कभी रोता दिखाई दे.

ए क़ाश मेरे इश्क़ कोई तौफ़ीक़ ये मिले,
ख़ुद का उसके नूर में चेहरा दिखाई दे.

महसूस तुझको जो करे मुमकिन ही नहीं है,
तन्हाइयों में वो कभी तन्हा दिखाई दे.

वीराना मुझको कहने लगा दोस्ती में ये,
मुझसा जो हो सके वही मुझसा दिखाई दे.

तौफ़ीक़ (हुनर, विशेषता)

चित्र (मधु सचदेवा)

Tuesday 18 March 2014

तुझसे जुदा हो जाना उलझन जैसा है,
ये ख़याल भी अब तो दुश्मन जैसा है.
साथ चलूँ तो लगे बुजुर्गों जैसा तू,
मुड़कर मैं देखूँ तो बचपन जैसा है.
साँसों में "दिन-रात" महकते रहते हैं,
कोई तो है जो मुझमें चन्दन जैसा है.
दिन तो लगता है जैसे क़व्वाली हो,
रात में तेरा नाम कीर्तन जैसा है.
करे अगर महसूस तो हर अहसास मेरा,
महलों में मिट्टी के आँगन जैसा है.
झुलसे हुए बदन और जलते मौसम में,
मुझमें तेरा होना सावन जैसा है.
आकर जबसे तूने पहना है मुझको,
बदन मेरा बस किसी पैरहन जैसा है.
पैरहन (कपड़े)

Friday 14 March 2014

फ़र्क नहीं पड़ता है..........

फ़र्क नहीं पड़ता है अब दिन-रातों में,
ज़िन्दा जब हैं हम मुर्दा हालातों में.

धूप में भी तो बर्फ़ पिघलती है हम में,
आग बरसने लगती है बरसातों में.

घर की छत पर पत्थर रखकर आए हैं,
तस्वीरों में फूल हैं जिनके हाथों में.

यहाँ-वहां हमशक्ल हवाएं चलती हैं,
फ़र्क कहाँ है शहरों और देहातों में.

वो ही फ़रिश्ते और मसीहा होते हैं,
खेल जो कर जाते हैं बातों-बातों में.

किसे ख़रीदें और कहाँ पर बिक जायें,
काबिज़ अब बाज़ार हैं रिश्ते नातों में.

एक अदद महफूज़ है मेरी ख़ुद्दारी,
जिसे बचाकर रक्खा है नग्मातों में.

Ghazal

आँधियों के बीच जो जलता हुआ मिल जाएगा
उस दिए से पूछना मेरा पता मिल जाएगा