Wednesday 30 April 2014

ऐसे भी मैं ख़ुद की हिफ़ाज़त करता हूँ,
ख़ुद से ही मैं ख़ुद की शिक़ायत करता हूँ.

उम्र दराज़ मुझे कहता है वक़्त मगर,
माँ के आगे अब भी शरारत करता हूँ.

जब ज़मीर पर पाँव कोई रख देता है,
सामने हो सुल्तान बग़ावत करता हूँ.

ज़मीं, आसमां, आग, हवा या पानी हो,
तेरे लिए मैं सबकी इबादत करता हूँ.

प्यार, मुहब्बत, रिश्ते, नाते, मज़हब में,
नहीं कभी मैं कोई सियासत करता हूँ.

जिसमें फ़क़त दुआयें साँसे लेती हों,
सिर्फ़ इकट्ठी ऐसी दौलत करता हूँ.

रस्में मुझसे अदा नहीं जब हो पातीं,
फिर से ज़िन्दा कोई रवायत करता हूँ. (रवायत = परम्परा)

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Tuesday 29 April 2014

छाँव में बैठ के शाख़ों से शरारत करना,
हमने सीखा है परिंदों से मुहब्बत करना.

हम दरख्तों को बुज़ुर्गों की तरह रखते हैं,
हमको आता है फ़क़ीरों की सोहबत करना.

अपना ईमान बचाने के लिए करना पड़ा,
वरना मुश्किल से खलीफ़ों की ख़िलाफ़त करना.

चाहे दुनिया से हमें शिकवे मिले लाख मगर,
माँ ने सिखलाया नहीं हमको शिकायत करना.

नींद काग़ज़ की तरह हमने बना ली अपनी,
आ गया हमको भी ख़्वाबों की खिताबत करना.

हमने रिश्तों में कभी क़ैद ना काटी होती,
हम भी गर जानते कुनबे से बग़ावत करना.

जान जोख़िम में है उन जलते हुए दीयों की,
सोच कर दोस्त हवाओं की वक़ालत करना.

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Friday 25 April 2014

मंज़िल नहीं है कोई मेरा रास्ता नहीं,
किस ओर जा रहा हूँ मैं मुझको पता नहीं.

है बेख़ुदी में कौन मेरी मुझको नहीं पता,
कोई तो मगर ये कहे मुझमें ख़ुदा नहीं.

हर दिल में मुझको दहरो-हरम मिलते रहे हैं, (दहरो-हरम = मंदिर-मस्ज़िद)
दुनिया के पत्थरों में मेरा देवता नहीं.

दिन रात झूमता हूँ मैं तेरी शराब में,
मेरे नशे के सामने कोई भी नशा नहीं.

मेरे सिवा भी पास तिरे हैं कई मुरीद,
लेकिन मेरा तो कोई भी तेरे सिवा नहीं.

कल भी रहा था आज भी मुझमें है तू ही तू,
इस घर में रहा आज तक कोई दूसरा नहीं.

कहने से पहले मेरा कहा तूने सुन लिया,
ख़ामोशियों को मेरी किसी ने सुना नहीं.

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Thursday 24 April 2014

उस जैसा कोई मेरा तलबगार नहीं है,
दुनिया में मेरे यार सा कोई यार नहीं है.

ठुकरा दिया है उसके लिए क़ायनात को,
उसके सिवा किसी से मुझे प्यार नहीं है.

जीते हैं यहाँ लोग सब जन्नत की तलब में,
मरने के लिए कोई भी तय्यार नहीं है.

लोगों ने वफ़ादार को ऐसा सिला दिया,
कहता ही रह  गया कि वो ग़द्दार नहीं है.

हर दौर में सजती रहीं जिस्मों की मंडियां,
अच्छा हुआ कि रूह का बाज़ार नहीं है.

मिट्टी ने कहा एक दिन क़दमों से लिपट के,
उसके सिवा मेरा कोई हक़दार नहीं है.

ये सोच के बस मैंने मेरी उम्र गँवा दी,
क्या मेरे लिए दूसरा संसार नहीं है.

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Wednesday 23 April 2014

हर इक दिल में दबे खजाने मिलते हैं,
जिस घर में तेरे दीवाने मिलते हैं.

इन यादों के क़िलों में क्या-क्या ढूंढोगे,
तयखानों में भी तयखाने मिलते हैं.

शहर की जिन दीवारों को पढ़ता हूँ मैं,
लिखे हुए तेरे अफ़साने मिलते हैं.

ख़ुद के ख़ालीपन को भर लेते इनमें,
जब हमको ख़ाली पैमाने मिलते हैं.

जब भी गुज़रते हैं हम वफ़ा के रस्तों पर,
ज़ख्म नए और दर्द पुराने मिलते हैं.

हर सूरत जानी पहचानी लगती है,
इतनी शक्लों में वीराने मिलते हैं.

नए दौर  के शहर में बाहर मत ढूंढो,
यहाँ घरों में भी मयखाने मिलते हैं.

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Tuesday 22 April 2014

ऐसा नहीं कोई मंज़र महफूज़ नहीं,
शहर में बस मेरा ही घर महफूज़ नहीं.

जिनकी तलवारों से ज़ंग हटाया था,
वो कहते हैं मेरा सर महफूज़ नहीं.

बुरे वक़्त से लड़कर जीत लिया लेकिन,
घर के चूल्हों से छप्पर महफूज़ नहीं.

आग लगी नींदों में ख़्वाब सुलगते हैं,
फूलों वाला अब बिस्तर महफूज़ नहीं.

ख़ुद्दारी के महल तो ऊँचे हैं फिर भी,
किसी इमारत का पत्थर महफूज़ नहीं.

वापस लौटा दो कबीर को तुम जाकर,
कह दो अब उसकी चादर महफूज़ नहीं.

कौन बता महफूज़ है तेरी दुनिया में,
इस सवाल का उत्तर भी महफूज़ नहीं.

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Monday 21 April 2014

पूरी उम्र में चाहे पहली बार हुआ,
ख़ामोशी को तन्हाई से प्यार हुआ.

उल्फ़त में जब जुदा यार से यार हुआ,
मजबूरी का अश्क़ों में इज़हार हुआ.

इज़्ज़त पर जब बन आयी तो दीया भी,
तेज़ हवा में जलने को तय्यार हुआ.

खुली नज़र से देख नहीं पाया उसको,
जब की आंखें बंद तभी दीदार हुआ.

रिश्तों में जो बातें ग़ैर ज़रूरी थीं,
आख़िर उन ही बातों पर इक़रार हुआ.

किसी मोड़ पर जब दोनों वीरान हुए,
तब मैं उसका वो मेरा हक़दार हुआ.

जिस काग़ज़ पर ग़ज़ल इश्क़ की लिखनी थी,
वो काग़ज़ ख़बरों वाला अखबार हुआ.

Sunday 20 April 2014

हदें तोड़ कर दूर-दूर तक फैला है,
बिना किनारों वाला मुझमें दरिया है.

कई परिन्दे परवाज़ों पर आते हैं,
मुझमें जैसे आसमान का रस्ता है.

अपना चेहरा कहाँ भूल आया हूँ मैं,
मेरे शाने पर ये किसका चेहरा है.

जिस पल तुमने मुड़कर मुझको देखा था,
इन आँखों में फ़क़त वही इक लम्हा है.

अंदर की दुनिया ही है सच्ची दुनिया,
बाहर की ये दुनिया तो फिर दुनिया है.

मुझको मेरे बाद ज़माना ढूंढेगा,
ये ख़याल भी ग़ालिब कितना अच्छा है,

मैं कबीर की चादर ले तो आया हूँ,
मगर ओढ़ने में मुझको डर लगता है.

Saturday 19 April 2014

अपना उसका किसका मैं चेहरा ढूँढूं,
मुझसा जो है उसमें बता मैं क्या ढूँढूं.

अपने ही हैं सब लेकिन कब अपने हैं,
अपनों में से भी कोई अपना ढूँढूं.

ख़्वाब कि जैसे बच्चे पढ़कर आते हों,
उनमें से अपना कैसे बच्चा ढूँढूं.

तू कहता है तुझमें मेरा सब कुछ है,
चल तुझमें मैं अबकी बार ख़ुदा ढूँढूं.

सफ़र अँधेरे का है जब ये जान लिया,
धूप में जाकर किस-किस का साया ढूँढूं.

इसी तलब से खुद के अन्दर झांक रहा,
बंद मकाँ में खुला हुआ कमरा ढूँढूं.

अपनी नींद में बुला मुझे इक बार कभी,
मैं भी अपने ख़्वाबों का नक्शा ढूँढूं.

Friday 18 April 2014

जब भी कहीं बारिश का मौसम आता है,
मुझमें इक जंगल ज़िन्दा हो जाता है.

जुबां पे दिल की बातें ऐसे आतीं हैं,
जैसे बच्चा बातों में हकलाता है.

मेरा घर अब लौट के तेरे आने तक,
दरवाज़ों को देख के दिल बहलाता है.

कितना मौसम रो पड़ते हैं तब मुझमें,
जब कोई पत्तों को आग लगाता है.

उसी वक़्त पर उगता है मेरा सूरज,
सुबह नींद से जब बच्चा उठ जाता है.

शाम ढले घर आकर दीप जलाऊं मैं,
तुलसी का पौधा मुझको समझाता है.

कैसे घर में उम्र काट ली मैंने भी,
जिसमें कोई आता है ना जाता है.


Thursday 17 April 2014

दर्द मेरा दिल को बहलाने आया है,
ग़ालिब की कोई ग़ज़ल सुनाने आया है.

उसने दरिया बहता हुआ नहीं देखा,
यही वजह वो मुझे रुलाने आया है.

उम्र गँवा कर ख़ुद जो समझ नहीं पाया,
वही बात मुझको समझाने आया है.

अपने घर की ख़ामोशी से घबरा कर,
मेरे घर में शोर मचाने आया है.

उसके पास ना जाने कितने चेहरे हैं,
इक चेहरा जो मुझे दिखाने आया है.

अपने पीछे भरे हुए बादल लेकर,
अबके मौसम आग लगाने आया है.

अपने से नाराज़ बहुत हैं वो लेकिन,
दुनिया का तो साथ निभाने आया है.

Wednesday 16 April 2014

लगी आग पर काबू पाना आता है,
प्यासा रहकर प्यास बुझाना आता है.

अपनी लौ से बुझे हुए दीयों को जला,
तेज़ हवा को सबक सिखाना आता है.

तूफ़ानों के बाद प्यार के तिनके चुन,
उम्मीदों का नीड़ बनाना आता है.

ऐसी भी तसवीरें हैं मेरे घर में,
जिनसे मिलने गुज़रा ज़माना आता है.

रेत पे मछली या काँटों पर तितली को,
याद बहुत मेरा अफ़साना आता है.

तन्हाई की सरहद पर अहसासों से,
यादों का इक मुल्क बसाना आता है.

जुड़ जाता है ग़ज़ल में मेरी शेर नया,
पंछी की जब  चौंच में दाना आता है.

Tuesday 15 April 2014

तकदीरों के दिन जब ढलने लगते हैं,
सूरज के सुरताल बदलने लगते हैं.

बुरे दिनों में मिट्टी चुप हो जाती है,
आसमान अंगार उगलने लगते हैं.

बिछुड़ के तुमसे चलना जैसे काई पर,
उम्मीदों के पाँव फिसलने लगते हैं.

जब भी बूँदें ज़िक्र तुम्हारा करती हैं,
हम गीली मिट्टी पर चलने लगते हैं.

ढल जाते हैं काँटों में अहसास मेरे,
फूलों को जब लोग मसलने लगते हैं.

अम्बर की बाहों में होती है हलचल,
पंछी के जब पंख निकलने लगते हैं.

दर्द करवटें लेता है जब पहलू में,
ग़ज़लों के कुछ शेर निकलने लगते हैं.

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Monday 14 April 2014

वो मेरा तो सारे मंज़र मेरे हैं,
ज़मीं आसमां और समन्दर मेरे हैं.

साँसें लेते हैं मेरे अहसासों में,
जितने भी हैं मिट्टी के घर मेरे हैं.

मक़सद एक था साथ में जीने मरने का,
इसीलिए सब कटे हुए सर मेरे हैं.

दुनिया से कम ख़ुद से ज्यादा डरता हूँ,
मुझमें जो ज़िन्दा हैं वो डर मेरे हैं.

दिल की बात जुबां पर ख़ुद आ जाती है,
ये तिलिस्म, ये जादू मंतर मेरे हैं.

जिन महलों के क़द की बातें करते हो,
गौर से देखो नींव के पत्थर मेरे हैं.

अपने-अपने वक़्त को जो गाते रहते,
इस दुनिया के सभी सुखनवर मेरे हैं.

सुखनवर (शायर)



Friday 11 April 2014

मुझमें से आवाज़ लगाता है कोई,
मुझको अपने पास बुलाता है कोई.

मुझको ढूँढने आएगी इक नई सुबह,
कहकर सारी रात जगाता है कोई.

सूने ख़ाली घर में ये क्यूँ लगता है,
जैसे इसमें आता-जाता है कोई.

मैं हूँ तेरे हर्फ़-हर्फ़ में ये कहकर,
मुझको मेरी ग़ज़ल सुनाता है कोई.

सदियों पहले जिनसे रिश्ता टूट गया,
उन यादों को साथ में लाता है कोई.

लगता है जैसे पानी की लहरों पर,
लिखकर मेरा नाम मिटाता है कोई.

मेरी तन्हाई का शायद दुश्मन है,
जब हँसता हूँ मुझे रुलाता है कोई.


Thursday 10 April 2014

इन आँखों में हर इक मंज़र उसका है,
क़तरा हूँ मैं और समंदर उसका है.

दरवाज़े पर तख्ती है चाहे मेरी,
रहता हूँ मैं जिसमें वो घर उसका है.

उसने जब लिख लिया हथेली पर अपनी,
कहाँ है मेरा अब तो मुक़द्दर उसका है.

अजब हमारे बीच गुफ़्तगू है जिसमें,
हर सवाल मेरा है उत्तर उसका है.

आंधी और तूफ़ान हैं मेरी  ठोकर में,
मेरे घर की नींव में पत्थर उसका है.

तोड़ लिए हैं महलों से रिश्ते अब तो,
जिस  पर सर झुकता है वो दर उसका है.

दुनिया के पिंजरे से छूटा पंछी हूँ,
अब उड़ान उसकी है अम्बर उसका है.

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Tuesday 8 April 2014

मुझको तेरे नूर का हिस्सा कहते हैं,
अब तो लोग मुझे भी दरिया कहते हैं.

जब से तेरा हुआ हूँ मेरे बारे में,
मेरे अपने जाने क्या क्या कहते हैं.

तू मुझमें दिखता है कोई भी देखे,
लोग मुझे अब तेरा आईना कहते हैं.

घर की सूनी दीवारें रो पड़ती हैं,
सन्नाटे जब मेरा क़िस्सा कहते हैं.

बंद पड़ा कमरा हूँ यादों का जिसको,
बस मकड़ी के जाले अपना कहते हैं.

नींद में मेरे ख़्वाबों की हिम्मत देखो,
मुझे जगा कर उल्टा-सीधा कहते हैं.

तू आए तो शायद ज़िन्दा मान भी लें,
अभी तो दुनिया वाले मुर्दा कहते हैं.

Monday 7 April 2014

हवा के तेवर जब भी बदलने लगते हैं,
जंगल ख़ुद की आग में जलने लगते हैं.

बच्चों जैसे क़दम हैं मेरी क़िस्मत के,
चलने लग जाएँ तो चलने लगते हैं.

आवाज़ें दीवारें देने लगती हैं,
घर से जब हम दूर निकलने लगते हैं.

क़लम हमारे हाथों में आ जाता है,
जब भी हम शमशीर में ढलने लगते हैं.

हँसता है सूरज ख़ुद के ढल जाने पर,
जुगनू भी जब आग उगलने लगते हैं.

कितनी घुटन हुआ करती है मौसम में,
जब झोंके फूलों को मसलने लगते हैं.

मैं इक ऐसी वारदात का हिस्सा हूँ,
देख के जिसको लोग सम्भलने लगते हैं.

Sunday 6 April 2014

जाने कौनसे मुझमें ख़ज़ाने ढूंढें है,
रोज़-रोज़ मिलने के बहाने ढूंढें है.

जब से बस्ती में लौटा है जंगल से,
हर घर में जाकर वीराने ढूंढें है.

आँखों में आज़ादी क़ैद रहे चाहे,
पिंजरे में भी पंछी दाने ढूंढें है.

अपने चेहरे से शर्मिंदा है इतना,
शीशों के घर में तयखाने ढूंढें है.

ख़ुद की कहानी रखकर मेरी आँखों में,
जाने वो किसका अफ़साने ढूंढें है.

किसकी इबादत में है गुम वो ही जाने,
मस्ज़िद से आकर बुतखाने ढूंढें है.

मंदिर-मस्ज़िद गुरुद्वारों में तुम जाओ,
अपना दिल तो अब मयखाने ढूंढें  है.

Wednesday 2 April 2014

पता नहीं है कौन जो जलता रहता है,
मुझमें तो बस मोम पिघलता रहता है.

अजब तरह की धूप निकलती है मुझमें,
जिस्म से आगे साया चलता रहता है.

नींद की ऊँगली थाम के अक्सर रातों में,
बच्चों जैसा ख़्वाब मचलता रहता है.

रूह को अक्सर होता है अहसास यही,
मुझमें कोई जिस्म बदलता रहता है.

ना ढलता ना उगता है उसका सूरज,
मेरा सूरज उगता ढलता रहता है.

जाने कहाँ पर खो देता है ख़ुद को वो,
लेकिन घर से रोज़ निकलता रहता है.

कभी तो आके मुझमें समां जा तेरे बिना,
मुझको अपना होना खलता रहता है.