Wednesday 2 April 2014

पता नहीं है कौन जो जलता रहता है,
मुझमें तो बस मोम पिघलता रहता है.

अजब तरह की धूप निकलती है मुझमें,
जिस्म से आगे साया चलता रहता है.

नींद की ऊँगली थाम के अक्सर रातों में,
बच्चों जैसा ख़्वाब मचलता रहता है.

रूह को अक्सर होता है अहसास यही,
मुझमें कोई जिस्म बदलता रहता है.

ना ढलता ना उगता है उसका सूरज,
मेरा सूरज उगता ढलता रहता है.

जाने कहाँ पर खो देता है ख़ुद को वो,
लेकिन घर से रोज़ निकलता रहता है.

कभी तो आके मुझमें समां जा तेरे बिना,
मुझको अपना होना खलता रहता है.




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