Saturday 30 August 2014

वो समंदर मुझे दिखाता है,
फिर मेरा सब्र आज़माता है.

पहले पत्थर हमें डराते थे,
अब हमें आईना डराता है.

तैरना तू सिखा समंदर अब,
डूबना तो हमें भी आता है.

ये बुझाने के काम आएगा,
आग पानी में क्यों लगाता है.

तेरी आवाज़ ये सुनेंगे नहीं,
ये तो मुर्दे हैं क्यों जगाता है.

गिरने वाली हैं ख़ुद ये दीवारें,
तू इन्हें किसलिए गिराता है.

लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/
-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

मेरी और ग़ज़लों के लिए देखें मेरा ब्लॉग
ghazalsurendra.blogspot.in

Friday 29 August 2014

तू जब तक नाम का दरिया रहा था,
मैं तब भी साथ में प्यासा रहा था.
जिसे अपनी नज़र तू कह रहा है,
मैं उसमें मुद्दतों तन्हा रहा था.
तेरी यादों की अब जो है हवेली,
वहां मेरा कभी कब्ज़ा रहा था.
बिना तेरे भी मैं तन्हा नहीं हूँ,
तू भी मेरे साथ भी तन्हा रहा था.
नहीं कुछ भी नहीं हुआ अब मैं तेरा,
मगर सच-सच बता क्या-क्या रहा था.
हमेशा मैं तो तेरा ही था लेकिन,
नहीं लगता है तू मेरा रहा था.
मुहब्बत थी हमारे बीच में कब,
हमरे बीच तो सौदा रहा था.

कहीं बच कर निकल जाने का रस्ता ढूँढती है,
नदी जंगल में इतनी दूर तक क्या ढूँढती है,

भटकती है ये किसकी याद मुझमें इस तरह भी,
कि जैसे माँ कोई मेले में बच्चा ढूँढती है,

तलाशूँ मैं यहाँ पर किस तरह कोई सहारा ,
यहाँ तो धूप भी पेड़ों का साया ढूँढती है,

जहाँ बेटों ने उसके नाम की बिल्डिंग बनायी,
वहाँ पे कोई बुढिया घर का नक्शा ढूँढती है,

मेरा ख़ाली मकाँ अब भर गया है इस तरह भी,
ये ढ़लती उम्र अब घर में भी कमरा ढूँढती है,

नहीं बाक़ी बची है अब तलब कुछ देखने की,
ये अंधी आँख फिर क्यूँ अब भी चश्मा ढूँढती है,

मुझे अब दूर ख़ुद से भी ज़रा होना पड़ेगा ,
सुना है ज़िन्दगी मुझको दुबारा ढूँढती है,

Thursday 28 August 2014

कुछ न होगा वक़्त की तब्दीलियों को देख कर,
गर संभल जाओगे अपनी ग़लतियों को देख कर.

देख कर औलाद का ग़म रो पड़ा वो इस तरह ,
जैसे दरिया रो पड़ा हो मछलियों को देख कर.

जंग के मैदान से बेटे ने लिक्खीं थी कभी,
आज भी रोती है माँ उन चिठ्ठियों को देख कर.

जिनके हाथों में नहीं बस्ते मगर बन्दूक हैं,
कांप जाता है ये दिल उन उँगलियों को देख कर.

दोस्ती अपनी है रंगों से इबादत की तरह,
अब भी हो जाता हूँ बच्चा तितलियों को देख कर.

इस यकीं पर ख्व़ाब खेतों में उगेंगे एक दिन,
कितना ख़ुश होता हूँ उड़ती बदलियों को देख कर.

छप्परों ने जब से अपने आप को पुख्ता किया,
अब नहीं डरता मेरा घर बिजलियों को देख कर .

Wednesday 27 August 2014

एक तरफ़ तो लोग खड़े हैं नींद में ख्व़ाब जलाने को,
और दूसरी तरफ़ हैं हाज़िर लोग उन्हें दफ़नाने को.

गूंगे ,बहरे ,बेगैरत और ज़ाहिल आज न सुनें मगर ,
वक़्त लिखेगा ,लोग सुनेंगे .कल मेरे अफ़साने को.

अय्याशी कर छोड़ गया था वक़्त तो उसको रस्ते में,
हमने घर में लाकर पाला ,लावारिस वीराने को.

वक़्त बिताया साथ में यूँ भी,रंग-बिरंगे रिश्तों ने ,
जैसे चाबीदार खिलौना था मैं दिल बहलाने को.

जिससे पूछो वही कहेगा ,वक़्त पुराना था अच्छा ,
लेकिन पाल रहे हैं सब तो घर पर नए ज़माने को.

अपने वतन को छोड़ के पंछी जा तो रहे हो तुम लेकिन,
ऐसा ना हो गैर मुल्क में तरसो दाने -दाने को.

तन्हाई भी अगर छोड़ के जायेगी दामन मेरा ,
भुला सकेगी आख़िर कैसे मुझ जैसे दीवाने को. 

Tuesday 26 August 2014

मुझे कुछ इस तरह महबूब का दर मिल गया है,
किसी बच्चे को ज्यूँ खोया हुआ घर मिल गया है.

बदन तो रेत का है मैं मगर इसमें बहूँगा ,
मुझे इस रेत में गहरा समंदर मिल गया है.

मेरे सर को कुचलने की जो साज़िश में लगा था ,
मुझे अपने ही घर में अब वो पत्थर मिल गया है.

मुझे छू कर मुक़द्दर ने कहा हैरान हो कर,
तुझे पाकर मुझे मेरा मुक़द्दर मिल गया है.

जहाँ तुम कह रहे हो राज करता है अँधेरा ,
वहां की है ख़बर अंधे को तीतर मिल गया है.

नहीं है करबला तो फिर जगह ये कौनसी है,
यहाँ कैसे कोई काटा हुआ सर मिल गया है.

पसीने की वो बदबू से परेशां हो रहे हैं,
किसी मजदूर का लगता है बिस्तर मिल गया है.

Monday 25 August 2014

जंगल में जाकर आवाज़ें लगा रहा हूँ ख़ुद को मों,
बूढ़े पेड़ों के सायों में बुला रहा हूँ ख़ुदको मैं.

मेरे यार का जिस रस्ते में रोज़ का आना-जाना है,
रोशन करने को वो रस्ते जला रहा हूँ ख़ुद को मैं .

उसके फाड़े हुए ख़तों को जोड़ा तो महसूस हुआ,
टुकड़े-टुकड़े बीन के जैसे उठा रहा हूँ खुद को मैं.

देर रात को आग बुझाने कौन आएगा सोच के ये,
दरवाज़े पर दस्तक देकर जगा रहा हूँ ख़ुद को मैं.

बाज़ारों में आ तो गया हूँ बिकने को फिर भी देखो,
अपने लोगों की नज़रों से बचा रहा हूँ ख़ुद को मैं.

मेरे आंसू देख के मेरा यार बहुत खुश होता है,
जब से राज़ खुला है मुझ पररुला रहा हूँ ख़ुद को मैं.

अपने बुरे वक़्त में कैसे ऐश करूँ जब ये सोचा,
तन्हाई में ख़ुद की ग़ज़लें सुना रहा हूँ ख़ुद को मैं.

Friday 22 August 2014

मुझको गाते हैं अँधेरे रोशनी का गीत हूँ,
मौत चाहे लिख रही हो ज़िन्दगी का गीत हूँ.

मुझको दरियाओं ने चाहे शोर में दफ़ना दिया,
मैं किनारों पर लिखा इक तिश्नगी का गीत हूँ.

मंदिरों और मस्ज़िदों में परवरिश ना पा सका,
उस ही मालिक की मगर में बंदगी का गीत हूँ.

मुझको फूलों ने लिखा है तितलियों के पंख से,
ख़ुश्बूओं वाली किसी मैं डायरी का गीत हूँ.

एक दिन दुश्मन भी मुझको दिल से अपने गायेंगे ,
मैं हूँ रिश्तों की इबादत दोस्ती का गीत हूँ.

मेरे अश्कों की इबारत कह रही है आज भी,
आने वाले कल के बच्चों की हंसी का गीत हूँ.

मेरे हर अल्फ़ाज़ को अपना समझ कर तुम पढ़ो,
इस तरह से गाओ जैसे आपका ही गीत हूँ.

मेरी ख़ुद्दारी से ये मेरे उसूलों ने कहा ,
धूप की तू शायरी मैं चांदनी का ग़ीत हूँ.

सच है दाने-दाने को हम उसके ही मोहताज़ रहे,
लेकिन साथ ना छोड़ा चाहे कुनबे से नाराज़ रहे,

दुनिया के किरदार हज़ारों हमने जी कर देख लिए,
अलग तौर से लेकिन अपने जीने के अंदाज़ रहे,

कहते हैं अब बनवायेंगे वो भी हवेली शीशे की,
ख़ानदान में जिनके सारे लोग निशानेबाज़ रहे.

शाख़ छोड़ते वक़्त हमेशा पेड़ दुआ देता है ये,
तेज़ हवा में सही सलामत पंछी की परवाज़ रहे,

उस दर के दरबान रहे हम, उसकी गुलामी की हमने,
वो जिसके क़दमों में दुनिया भर के तख़्त-ओ-ताज़ रहे,

अपने हक़ में हाथ उठाना आता है हमको लेकिन,
मुफ़लिस और मज़लूमों की ही बनकर हम आवाज़ रहे, (मज़लूमों = बेसहारा)

वो जो कुछ भी बोला मुझमें सिर्फ़ उसी को दोहराया,
अपनी हर इक ग़ज़ल में शामिल उसके ही अलफ़ाज़ रहे.

Tuesday 19 August 2014

ज़ेहन में मेरे सूरज बन कर उगता है महबूब मेरा,
मेरी तन्हाई को रोशन करता है महबूब मेरा.

ज़मीं,आसमां ,पर्वत,दरिया ,बादल गिरते झरनों में,
नज़रें जहाँ-जहाँ भी जाएँ ,दिखता है महबूब मेरा.

इश्क़ में प्यास की शिद्दत बढ़ कर ,जब मुक़ाम पे आती है,
सहराओं में दरिया बन कर ,बहता है महबूब मेरा.

ना जाने कैसे ढल जाता ,मेरा सफ़र नमाज़ों में ,
ज़ख्मी पांवों से मेरे जब चलता है महबूब मेरा .

तलबगार मैं उसका हूँ या तलबगार वो है मेरा ,
पता नहीं लेकिन ख़ुद आकर मिलता है महबूब मेरा.

मेरी तो हर सांस उसे ही कहती है महबूब मगर,
देखूं कब महबूब मुझे भी कहता है महबूब मेरा .

दिल के हर कोरे काग़ज़ पे अहसासों के रंगों से ,
ऊँगली मेरी पकड़ के ग़ज़लें लिखता है महबूब मेरा .

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl
कुछ कभी गौर से पढ़ा भी है,
इस हथेली पे कुछ लिखा भी है.

मुझको सहरा तो कह रहा है तू,
मेरे बारे में कुछ पता भी है.

मिलता रहता है फासलों से मगर,
मुझमें कोई  तो दुसरा भी है.

तुम हो मालिक मेरे तुम्हें सजदा,
मेरे आगे मगर ख़ुदा भी है.

ख़ाल शेरों की, बूढ़ी तस्वीरें,
इस हवेली में कुछ नया भी है.

छीन कर हर पुराने पत्ते  को,
मुझपे मौसम ने कुछ लिखा भी है.

अपनी ग़ज़लों से ये ज़रा पूछो,
दर्द पैदा कभी हुआ भी है.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Friday 15 August 2014

ये भी सच है दरियाओं से अपनी फ़ितरत मिलती है,
लेकिन फिर भी सहराओं से जाकर क़िस्मत मिलती है.

तूफ़ानों के बाद नशेमन फिर से बनाने लगते हैं,
देख परिंदों की हिम्मत को कितनी हिम्मत मिलती है.

जाने कौन-कौन सी दुनिया ढूंढ रहे इस दुनिया में,
ख़ुद में पल तो पल रहने की किसको फ़ुर्सत मिलती है.

हम अपने ज़मीर को गिरवी कब रखने बाज़ार गए,
जान के भी ऐसे लोगों को अच्छी क़ीमत मिलती है.

सूरज के वारिस होकर भी खड़े अँधेरे के आगे,
देख रहे हैं ख़ानदान की किसे वसीयत मिलती है.

दुआ बुज़ुर्गों की पाकर ही हमने ये महसूस किया,
दौलत, शौहरत, शानो-शौक़त और हैसियत मिलती है.

दरग़ाहें आवाज़ लगाने लगती हैं मुझको अक्सर,
ना जाने अब किस फ़क़ीर से अपनी सूरत मिलती है.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Sunday 10 August 2014

बिछुड़े बेटे से जैसे मिले कोई माँ,
मुझको ऐसे मिली सूफ़ियों की ज़ुबां.

ख़ुद से हम जब मिले भी तो ऐसे मिले,
बारिशों में मिले जैसे जलता मकाँ.

मैं ज़मीं था मगर मेरी ज़िद ये रही,
मुझको छूने की ख़ातिर झुके आसमां.

मेरा होकर भी तूने रखी दूरियाँ,
तू कहाँ मैं कहाँ, मैं कहाँ तू कहाँ.

पंछियों की तरह मैंने पाला इन्हें,
यूँ नहीं हो गए ख़्वाब मेरे जवाँ.

मेरे बाहर  कड़ी धूप का था सफ़र,
मेरे अन्दर था लेकिन कोई सायबां.   सायबां = छायादार

मेरी नज़रों में तू जो रहा उम्र भर,
मेरी साँसों का चलता रहा कारवाँ.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Friday 8 August 2014

मेरा यार इश्क़ के ऐसे इक अफ़साने जैसा है,
लिखा पुराने वक़्त ने लेकिन नए ज़माने जैसा है.

मेरे यार का होना मुझमें कैसा है ये पूछ ना तू,
ख़ुदा के घर में छिपा के रक्खे हुए ख़ज़ाने जैसा है.

मेरा यार तो दीवानों की भीड़ में ही रहता है गुम,
कौन उसे पहचान सकेगा किस दीवाने जैसा है.

मंदिर, मस्ज़िद, गिरज़ाघर और गुरुद्वारे में गया नहीं,
मेरा यार तो ख़ुद क़ुदरत के इक नज़राने जैसा है.

मेरे यार से जुड़ना लेकिन इतना भी आसान नहीं,
सब के साथ में रहता है लेकिन बेगाने जैसा है.

इस दुनिया से उस दुनिया तक मेरे यार का  है रूतबा,
मेरे यार के नाम का लोहा हर कोई माने जैसा है.

यारी रखकर अपने यार से मैंने जान लिया है ये,
दुनिया में बस यार ही मेरा दिल में  बसाने जैसा है.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl


Tuesday 5 August 2014

मुझमें मेरा कहीं ख़ुदा है कोई,
मेरे बारे में सोचता है कोई.

इश्क़ को मेरे कौन समझेगा,
मैं किसी का हूँ ढूंढता है कोई.

कल तलक़ अजनबी समझता था,
अब दुआओं में मांगता है कोई.

जब करूँ नेकियाँ तो लगता है,
मेरे अन्दर भी झांकता है कोई.

मुझको बिस्तर सुबह बताते हैं,
मेरे सोने पे जागता है कोई.

साथ जैसे फ़क़ीर चलता हो,
उम्र मुझमें भी काटता है कोई.

अपनी फ़ितरत से मैं भी सूफ़ी हूँ,
हूँ किसी का मैं पालता है कोई.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Monday 4 August 2014

ख़ुद के साथ ही रहकर सारी उम्र बिताई हमने तो,
तन्हाई में ख़ामोशी को ग़ज़ल सुनाई हमने तो.

पीछे-पीछे दरिया कितने बहते सारी उम्र रहे,
क़तरा-क़तरा जोड़ के फिर भी प्यास बुझाई हमने तो.

सूरज से भी रिश्तेदारी यूँ तो अपनी रही मगर,
मिट्टी के ही दीये से उम्मीद लगाई हमने तो.

अपनी ख़ुद्दारी ज़मीर को ज़िन्दा रखा उसूलों से,
दुनिया चाहे कहती रहे कि उम्र गंवाई हमने तो.

वचन नहीं तोड़ा कोई भी अपनी जान बचाने  को,
ख़ानदान वाली रघुकुल की रीत निभाई हमने तो.

सच बोले तो सर ना बचेगा जंग में जब ऐलान हुआ,
जान बचाई लोगों ने और आन बचाई हमने तो.

इस दुनिया की धन दौलत और शौहरत चाहे नहीं मिली,
दुआ कमाकर उस दुनिया की करी कमाई हमने तो.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Sunday 3 August 2014

माना ये कि शापित चम्बल, ना तू है ना मैं ही हूँ,
लेकिन सच है कि गंगाजल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

मिट्टी के दीयों ने सारी रात जलाकर पाला था,
माँ का वही बनाया काजल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

भीतर से भी खुल सकते हो, बाहर से भी खुलते हों,
ऐसे दरवाज़े की सांखल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

अपनी-अपनी खुशबु से पहचान बना ली दोनों ने,
चन्दन वन जैसा विन्ध्याचल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

साँसों की सुर-ताल के आगे, बजती है जो हर इक पल,
समय के पांवों की वो पायल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

दूर देश से आकर बरसें, खेतों और खलिहानों में,
बरसने वाला वो इक बादल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

बूढ़े इक फ़क़ीर ने जिसको, ओढ़ा और बिछाया था,
रूह में लिपटा हुआ वो कम्बल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Thursday 31 July 2014

दूर-दूर तक दिन की धूप में जलता सहरा देखा था,
सुबह-सुबह ना जाने हमने किसका चेहरा देखा था.

माँ की आँख में होंगे आँसू कब उसने सोचा था ये,
जिस बच्चे ने ख़्वाब में अपने बहता दरिया देखा था.

सोने जैसी धूप में धोका इन आँखों ने यूँ खाया,
जंगल में सीता ने जैसे हिरण सुनहरा देखा था.

पढ़ना उदासी सीख के जब हम पहुंचे शहर की सड़कों पे,
भीड़ में शामिल हर चेहरे को हमने तन्हा देखा था.

सुबह-सुबह वो घर की छत से उतर के आया हौले से,
सारी रात जाग के हमने जिसका रस्ता देखा था.

जिसमें पढ़ती थीं कितनी ही रंग-बिरंगी उम्मीदें,
हमने अपने गाँव का वो ही बंद मदरसा देखा था.

धूप-चांदनी एक साथ थी चारों तरफ़ अँधेरे में,
अपने भीतर क्या बतलाऊं कैसा जलवा देखा था.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Wednesday 23 July 2014

गया जिसके लिए रुख़ मोड़ कर सारे ज़माने से,
मैं वापस लौट आया हूँ उसी के आस्ताने से.

तमन्ना है कि मिलने का रहे ये सिलसिला जारी,
कभी सच्चे बहाने से, कभी झूंठे बहाने से.

अगर मुझसे कोई रिश्ता नहीं बाक़ी बचा उसका,
बता ख़ुशबू भी आती है क्यूँ उसके आशियाने से.

नहीं मिट पाउँगा उससे ये तूफ़ा जानता भी था,
मगर उसको  तो मतलब था मुझे ही आज़माने से.

कभी टूटे भी गरचे हम बिना आवाज़ के टूटें,
कि दुनिया बाज़ आए बेतुकी बातें बनाने से.

नहीं जब तू कहीं मौजूद मुझमें ही रहा तो फिर,
मुझे लेना भी क्या है ये बता अब इस ज़माने से.

परिंदे प्यार के आयें अगर हम में कहीं रहने,
इन्हें मत रोकना अपने दिलों में घर बनाने से.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Tuesday 22 July 2014

ये किस मोड़ पर ले आये हालात मुझे,
लोग दुआ देते हैं या खैरात मुझे.

इनके हैं अहसान कई मेरे सिर पर ,
कितने सबक़ सिखाते हैं सदमात मुझे .

ख़ुद से बातें करना अजब तजुर्बा है,
लगती है हर बात नई सी बात मुझे .

पेड समझ कर बाहों में ले लेती है,
जब जंगल में मिलती है बरसात मुझे .

ज़ख्म गुलाबी होकर ख़ुशबू देते हैं,
दर्द थमा जाते हैं जब नग्मात मुझे.

यादों का मैं गुनहगार हो जाता हूँ,
कम लगने लगते हैं जब दिन -रात मुझे .

छुडा गये तुम हाथ मगर देखो अब तक,
होते हैं महसूस हाथ में हाथ मुझे .

था घर अपना सर बस छुपाने के क़ाबिल,
कहाँ घर था उनको बुलाने के क़ाबिल .

उन्हें तो हुनर आ गया दिल्लगी का,
हमीं ना हुए दिल लगाने के क़ाबिल .

झुका हम ही देते ये सर करके सजदा ,
मिला दर जो होता झुकाने के क़ाबिल.

लिखे नाम उसने थे जिन काग़ज़ो पर,
हमीं हर्फ़ थे बस मिटाने के क़ाबिल.

कभी लौट कर वो ना आया दुबारा ,
हुआ जब से खाने -कमाने के क़ाबिल.

शजर पर थे पंछी हजारों ही हमसे ,
हमीं थे मगर बस निशाने के क़ाबिल .

ज़माना हुआ ना तो क़ाबिल हमारे ,
ना हम हुए इस ज़माने के क़ाबिल .

कड़ी धूप और लम्बे सफ़र में पेड़ का साया होते हैं,
सहराओं में रहने वाले लोग मसीहा होते हैं.

सूरज को उगने से पहले मर जाते हैं नींदों में,
वो के वो ही ख़्वाब रात में फिर से ज़िन्दा होते हैं.

चट्टानों की मज़बूती तो सिर्फ़ दिखावे जैसी थी,
टूट के बिखरे तब ये जाना लोग आईना होते हैं.

बुरे वक़्त में खुल जाते हैं जो भीतर और बाहर से,
सच पूछो माँ-बाप ही जन्नत का दरवाज़ा होते हैं.

सहराओं की प्यास बुझाने कहाँ समंदर आता है,
ये तो दरिया ही हैं जो फ़ितरत से फ़रिश्ता होते हैं.

तन्हाई जागीर में हमको दी है मगर  अ-सुल्तानों,
क्या बतलायें तन्हाई में हम भी क्या-क्या होते हैं.

वही मेरी ग़ज़लों में सांसे लेने लगते हैं आकर,
सूखे ज़ख्मों की ज़मीन पे दर्द जो पैदा होते हैं.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Friday 18 July 2014

मुफ़लिस और मज़दूरों की जागीर हूँ मैं,
जाने कितने लोगो की तक़दीर हूँ मैं.

यारी हो तो सर भी कटाने को हाज़िर,
अगर दुश्मनी हो तो इक शमशीर हूँ मैं.    (शमशीर = तलवार)

यूँ तो हवाओं के क़दमों का घुंघरू हूँ,
तूफ़ानों के पांवों की जंज़ीर हूँ मैं.

कितने ही लोगों की टेढ़ी नज़रें हैं,
कभी-कभी तो लगता है कश्मीर हूँ मैं.

वक़्त ने कितने ही रंगों से रंगा मुझे,
आने वाले कल की इक तस्वीर हूँ मैं.

कल मुझको ख़ुद वक़्त शौक़ से पढ़ता था,
आज भले ही मिटी हुई तहरीर हूँ मैं.    (तहरीर = लिखावट)

दिल मेरी ग़ज़लों को सुन कर बोल उठा,
करवट लेते नए दौर का मीर हूँ मैं.    (मीर = एक शायर का नाम)

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

मेरी और ग़ज़लों के लिए देखें मेरा ब्लॉग,
ghazalsurendra.blogspot.in

Thursday 17 July 2014

सुखी रेत पे ज़िन्दा मछली होती है,
सुख-दुःख की जब अदला-बदली होती है.

अपनी इज़्ज़त  रही उम्र भर ऐसे ही,
ज्यों यतीमखाने में लड़की होती है.

यही सोच के हवा को रोका नहीं कभी,
उजड़े घर में टूटी खिड़की होती है.

समझ गए थे कच्चे घर के छप्पर भी,
भरे हुए बादल में बिजली होती है.

ज़ख़्मी थे अहसास कि जैसे बच्चे की,
फंसी हुई पहिये में उंगली  होती है.

इसी ग़लतफ़हमी में धोका खा बैठे,
रोने की आवाज़ तो असली होती है.

उस बेटी का ख़ुदा मुहाफ़िज़ होता है,    (मुहाफ़िज़ = रक्षक)
जो बेटी माँ-बाप की लकड़ी होती है.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Wednesday 16 July 2014

ये मुमकिन है बहुत महंगा मिलेगा,
भलाई का सिला अच्छा मिलेगा.

यकीं भी कर रहा हूँ तो ये डर है,
मुझे इस बार भी धोका मिलेगा.

है घर ऊंचा मगर मैं सोचता हूँ,
वहां पे आदमी कैसा मिलेगा.

मुझे तुम रास्ता तो कह रहे हो,
अँधेरे का सफ़र लंबा मिलेगा.

मुझे खोकर तुम्हारा क्या गया था,
मुझे पाकर भी तुमको क्या मिलेगा.

इल्तज़ा है की तुम मुझमें ना झांको,
कोई बच्चा तुम्हें रोता मिलेगा.

तसव्वुर में फ़क़ीरों के रहा हूँ,
मेरे घर का कहाँ नक्शा मिलेगा.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Tuesday 15 July 2014

देखने को दम कितना, दुश्मनों की ताक़त में,
पेश आ रहे हैं हम अब तलक शराफ़त में.

पढ़ते हो उदास चेहरे, चुप्पियों को सुनते हो,
सुनके ये चले आये, आपकी अदालत में.

नीयतों की नींव पे खड़ी, अज्म और ज़मीर से बनी,    (अज्म = आत्म-सम्मान)
अमनो-चैन रहता है, दिल की इस इमारत में.

जुगनुओं के कुनबों में, ऐसे भी कई होंगे,
तीरगी में ग़ुम हो गए, रौशनी की चाहत में.    (तीरगी = अँधेरा)

मंदिरों में क्या जाते, मस्ज़िदों में क्या करते,
उम्र  काट ली हमने, इश्क़ की इबादत में.

वो दीये क्या आयेंगे, आँधियों की ज़द में कभी,
जो रहे हवाओं की, हर घड़ी हिफ़ाज़त में.

फ़ितरतें फ़कीराना, आदतें अमीराना,
हम रहे हैं ख़ुद की ही, उम्र भर निज़ामत में.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Sunday 13 July 2014

बदन में रहते हुए मेरा घर अकेला है,
मैं इक ख़याल हूँ मेरा सफ़र अकेला है.

न जाने कितने हीं मौसम ठहर के चलते बने,
परिंदा आज भी उस पेड़ पर अकेला है.

कई हैं आपके सज़दे में सर झुकाने को,
हज़ूर लेकिन कटाने को सर अकेला है.

नज़र में दूर तलक याद का ही है जंगल,
यहाँ पे मुझसा मगर हर शजर अकेला है.

कहाँ से ढूंढ के लाओगे इसके जैसा तुम,
हज़ार सदमे हैं लेकिन जिगर अकेला है.

यही मैं सोच के उसके गली में जाता हूँ,
मुझे भी देगा सदा वो अगर अकेला है.

ज़रा सा गौर करो और उसको फिर देखो,
ज़माना साथ सही वो मगर अकेला है.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Friday 11 July 2014

मौसम से हम जब भी गुज़ारिश करते हैं,
अब्र मेहरबां होकर बारिश करते हैं.    (अब्र = बादल)

जब भी नज़ूमी क़िस्मत पढ़ते हैं मेरी,    (नज़ूमी = ज्योतिषी)
चाँद-सितारे मेरी सिफ़ारिश करते हैं.

बदन किसी के नाम मुक़र्रर है अपना,
बाज़ारों में नहीं नुमाईश करते हैं.

नहीं बुझा पायेंगे ये कह दो इसे,
मिलके हवाओं से जो साज़िश करते हैं.

हम ज़मीन से ही रखते हैं हर  रिश्ता,
आसमान की हम कब ख्वाहिश करते हैं.

लाख दरिया सामने औ" हम प्यासे हों,
क़तरे तक की कब फ़रमाईश करते हैं.

क़दमों में बिछ जाते हैं कालीनों से,
जब  बुज़ुर्ग हमसे समझाईश करते  हैं.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Thursday 10 July 2014

कौन समझाए उन्हें इतनी जलन ठीक नहीं,
जो ये कहते हैं मेरा चाल-चलन ठीक नहीं.

झूँठ को सच में बदलना भी हुनर है लेकिन,
अपने ऐबों को छुपाने का ये फन ठीक नहीं.

उनकी नीयत में ख़लल है तो घर से ना निकलें,
तेज़ बारिश में ये मिट्टी का बदन ठीक नहीं.

शौक़ से छोड़ के जाएँ ये चमन वो पंछी,
जिनको लगता है कि ये अपना वतन ठीक नहीं.

हर गली चुप सी रहे, और रहें सन्नाटे,
मेरे इस मुल्क में ऐसा भी अमन ठीक नहीं.

जो लिबासों को बदलने का शौक़ रखते थे,
आखरी वक़्त ना कह पाए क़फ़न ठीक नहीं.

वक़्त आने पे हुआ कम भला लगता है,
हुश्न जब सामने आ जाए भजन ठीक नहीं.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Wednesday 9 July 2014

कहाँ चेहरा मेरा बिखरा हुआ था,
मेरा तो आईना टूटा हुआ था.

मेरी  प्यासी निग़ाहों के ही अन्दर,
समंदर दूर तक फैला हुआ था.

कहीं उसमें उदासी रो रही थी,
मगर दामन मेरा भीगा हुआ था.
नशेमन था मेरा उस पेड़ पर ही,
जहाँ पर सांप भी बैठा हुआ था.

सिसकता दर्द ये जुड़वां है मेरा,
मेरे ही साथ मैं पैदा हुआ था.

जड़ें बेजान, पानी में खड़ी थीं,
शजर मुझमें कोई सूखा हुआ था.

वही लिपटा था क्यूँ मेरे क़फ़न में,
जिसे बिछुड़े हुए अर्सा हुआ था.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl


Tuesday 8 July 2014

ढह गया वो घर जिसे पुख्ता समझ बैठे थे हम,
किस यक़ी पर आपको अपना समझ बैठे थे हम.

दूसरी दुनिया कहीं पर है  कभी सोचा न था,
आपकी दुनिया को ही दुनिया समझ बैठे थे हम.

साथ जो चलता रहा वो दूसरा ही जिस्म था,
भूल से अपना  जिसे साया समझ बैठे थे हम.

हमज़बाँ, हमराज़, हमदम, हमसफ़र और हमनशीं,
क्या बताएं आपको क्या-क्या समझ बैठे थे हम.

आपकी फ़ितरत के चेहरे थे कई समझे नहीं,
जो था शाने पर उसे चेहरा समझ बैठे थे  हम.

आप ख़ुद जैसे थे वैसा ही हमें समझा किए,
ख़ुद थे जैसे आपको वैसा समझ बैठे थे हम.

सोचते हैं अब कि कैसे बेख़ुदी में आपको,
अपनी तन्हा उम्र का रस्ता समझ बैठे थे हम.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Monday 7 July 2014

जब भी ख़त के जवाब पढ़ता था,
अपनी आँखों के ख़्वाब पढ़ता था.

वो मदरसा कभी गया ही नहीं,
बस वो दिल की क़िताब पढ़ता था.

उसका जलवा-ए-नूर था ऐसा,   (जलवा-ए-नूर = रौशनी का जलवा)
उसको ख़ुद आफ़ताब पढ़ता था.    (आफ़ताब = सूरज)

तुमने चेहरे पढ़े हैं लेकिन वो,
उन पे जो थे नक़ाब पढ़ता था.

नेकियाँ करके उसके बदले में,
क्या मिलेगा सबाब पढ़ता था.    (सबाब = पुण्य)

शौक़  कितना अजीब था उसका,
मुझको, पीकर शराब पढ़ता था.

वक़्त जैसा मिजाज़ था उसका,
वो ग़ज़ल सबके बाद पढ़ता था.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Sunday 6 July 2014

जो हैं बंद कबसे वो घर बोलते हैं,
गुनाहों में भीतर के डर बोलते हैं.

जो हैं बोलने वाले सच्चाईयों के,
ज़ुबां कट भी जाए मगर बोलते हैं.

हवा जब गुज़रती है तन्हाइयों से,
नदी के किनारे शजर बोलते हैं.     (शजर = पेड़)

परिंदों को मंज़िल मिलेगी यक़ीनन,
ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं.

इन्हें आबो-दाना है मिलता जिधर से,
ये पंछी हमेशा उधर बोलते हैं.

वही लोग रहते हैं ख़ामोश यारो,
ज़माने में जिनके हुनर बोलते हैं.

बुलंदी पे कितने थे उनके इरादे,
ये काटे हुए उनके सर बोलते हैं.

हैं कैसी अजब बस्तियाँ ये शहर की,
ना आपस में जिनके बशर बोलते हैं.    (बशर = लोग)

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Thursday 3 July 2014

रेत के ऊपर उड़ते बादल जैसा तू,
या फिर माँ के उड़ते आँचल जैसा तू,

घुंघरू बनकर बज उठते हैं शाम-सुबह,
दुल्हन के पांवों की पायल जैसा तू.

ताक में जैसे जलता दीया रखा हुआ,
और दीये में पलते काजल जैसा तू.

तुझमें उगे हुए पेड़ों के जैसा मैं,
दूर-दूर तक फैले जंगल जैसा तू.

तेरे पीछे बच्चों जैसा फिरता हूँ,
दीवाना है या फिर पागल जैसा तू.

मन मेरा है लिपटे हुए कलाये सा,   (कलाये = कलाई में बाँधने वाला धागा)
मुझमें उगे हुए इक पीपल जैसा तू.

मुझमें ग़ज़लों का गुलज़ार बगीचा है,
कूक रहा है जिसमें कोयल जैसा तू.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Wednesday 2 July 2014

उम्र का इक-इक लम्हा रोता रहता है,
बहते हुए भी दरिया रोता रहता है.

मेरे क़दमों मी मायूसी को पढ़कर,
सफ़र में अक्सर रस्ता रोता रहता है.

अजब शख्स है हँसता भी है तो उसके,
कंधे पर इक चेहरा रोता रहता है.

कौन है ये दीवाना जो मुझमें आकर,
तन्हा बैठ के हँसता-रोता रहता है.

गाँव छोड़ कर जब से शहर गई है माँ,
तुलसी का इक पौधा रोता रहता है.

कमरे में माँ-बाप ठिठोली करते हैं,
घर की छत पर बच्चा रोता रहता है.

पेड़ों को अहसास है इसका शिद्दत से,
शाख़ से टूट के पत्ता रोता रहता है.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

DD Rajasthan Mushaira in Which Surendra Chaturvedi Participated

DD Rajasthan Mushaira in Which Surendra Chaturvedi Participated

DD Rajasthan Mushaira in Which Surendra Chaturvedi Participated

DD Rajasthan Mushaira in Which Surendra Chaturvedi Participated

Tuesday 1 July 2014

तुझसे जब-जब भी आशिक़ी होगी,
मेरे होठों पे शायरी होगी.

मैं हूँ सूरज ये मैंने जान लिया,
मैं जलूँगा तो रौशनी होगी.

भीगता मैं रहुंगा भीतर से,
ऐसी बरसात भी कभी होगी.

लौट आया है तू जुदा होकर,
मुझमें कुछ बात तो रही होगी.

मैं किनारों की शक्ल ले लूँगा,
पास जब नूर की नदी होगी.

मुझको जिस हाल में रखेगा तू,
मुझको उस हाल में ख़ुशी होगी.

मैं समंदर को पी के प्यासा रहूँ,
मेरी ख्वाहिश ये आख़िरी होगी.


मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Monday 30 June 2014

जनाज़ा किसी का उठा ही नहीं है,
मरा कौन मुझमें पता ही नहीं है.

मुझे को दिया और लगा उसको ऐसा,
कि जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं है.

ये कैसी इबादत ये कैसी नमाज़ें,
ज़ुबां पर किसी के दुआ ही नहीं है.

चले जिस्म से रूह तक तो लगा ये,
बिछुड़ वो गया जो मिला ही नहीं है.

यूँ कहने को हम घर से चल तो दिए हैं,
मगर जिस तरफ़ रास्ता ही नहीं है.

ख़ताओं की वो भी सज़ा दे रहे हैं,
गुनाहों के जिनकी सज़ा ही नहीं है.

पसीने से मैं अपने वो लिख रहा हूँ,
जो क़िस्मत में मेरे लिखा ही नहीं है.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Sunday 29 June 2014

दूर खड़े होकर लम्हा रुसवाई का,
मंज़र देख रहा मेरी तन्हाई का.

तू है समंदर मान लिया अब चुप हो जा,
पता पूछ मत तू मेरी गहराई का.

बदन मेरा ख़ुद पर शर्मिंदा हुआ बहुत,
चेहरा मैंने जब देखा परछाई का.

क़तरा-क़तरा निचुड़ा फूल तो इत्र बना,
हश्र यही होता है हर अच्छाई का.

मुझमें रहने से डरते हैं लोग सभी,
जैसे मैं इक घर हूँ किसी कसाई का.

तू खयाम की अगर रुबाई बन जाए,
छंद बनूँ मैं तुलसी की चौपाई का.

दाद मुझे दी खुलकर मेरी ग़ज़लों ने,
जब भी शेर कहा मैंने सच्चाई का.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Saturday 28 June 2014

Surendra Chaturvedi Ghazal-Go On DD Rajasthan TV

All India Mushaira

बस इक मैं ही यहाँ से रोज़ गुज़रता हूँ,
ये बतला कि किसके घर का रस्ता हूँ.

कई दिनों से आग नहीं छूती मुझको,
जाने किस मुफ़लिस के घर का चूल्हा हूँ.

ख्वाहिशें मुझमें रोज़ ख़ुदकुशी करती हैं,
उनके लिए जैसे फांसी का फंदा हूँ.

प्यास बुझाओ और किसी दरिया पे जा,
मैं तो कपड़े धोने वाला कूआ हूँ.

रिश्तों के मेले में घूम रहा लेकिन,
कल भी तन्हा था मैं, आज भी तन्हा हूँ.

सुना है तन्हाई में दुनिया रोती है,
मैं हूँ कलंदर, तन्हाई में हँसता हूँ.

मुझे देख कर छुप जाते हैं आईने,
जाने मैं भी किस पत्थर का चेहरा हूँ.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl


Friday 27 June 2014

ये तेरी चाहतों का सदक़ा है,    (सदक़ा = वार कर दिया दान)
ज़ख़्म मुर्दा हैं, दर्द ज़िन्दा है.

इक इबादत है इश्क़ मेरे लिए,
इश्क़ तेरे लिए तज़ुर्बा है.

मैं दुआओं में सबके हूँ शामिल,
मेरे जीने का ये नज़रिया है.

तुझको सोचूं, तुझी को याद करूँ,
ये भी तन्हाइयों का सजदा है.

ये मिला है हमें जुदा होकर,
मैं भी रुसवा हूँ, तू भी रुसवा है.     (रुसवा = बदनाम)

बड़ी नज़दीकियों से अपनों को,
तूने देखा है, मैंने देखा है.

तू है मौजूद गर ख़ुदा की तरह,
बीच में कौनसा ये पर्दा है.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

देख रहा है लिख कर मुझको,
देख कभी तो पढ़ कर मुझको.

आँखें मीचे बैठा हूँ मैं,
देख रहा है मंज़र मुझको.

बुतपरस्त इक शख्स आजकल,
बना रहा है पत्थर मुझको.

फूल मुसीबत में है शायद,
समझ रहे हैं नश्तर मुझको.

जो अमीर होता है पाकर,
खो देता है अक्सर मुझको.

अब  की बार नज़ूमी बन कर,    (नज़ूमी = ज्योतिषी)
पढ़ने लगा मुक़द्दर मुझको.

तेरे लिए हुआ हूँ बेघर,
ले चल अब अपने घर मुझको.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Monday 23 June 2014

जब वो मेरी हर उड़ान को भूल गया,
मैं भी उसके आसमान को भूल गया

सूरज होकर भटक रहा अंधियारों में,
क्या तू अपने ख़ानदान को भूल गया.

ख़ुदा को हाज़िर नाज़िर कर के आख़िर दम,
चश्मदीद अपने बयान को भूल गया.

जिसके नीचे रह कर सारी उम्र कटी,
साया उस ही सायबान को भूल गया.     (सायबान = छाया देने वाला)

डूब गया उसका ज़मीर सैलाबों में,
पानी ख़तरे के निशान को भूल गया.

उसके रिश्ते बिकते रहे बज़ारों में,
गिरवी रख कर जो ज़ुबान को भूल गया.

ऐन वक़्त पर जिसने खुलकर साथ दिया,
वही सफ़ीना बादबान को भूल गया.   (सफ़ीना = जहाज) (बादबान = मस्तूल)

तुमको थका हुआ जब देखा रस्ते में,
मैं अपनी लम्बी थकान को भूल गया.

मुद्दत पहले घर से निकल गया था मैं,
लौटा तो अपने मकान को भूल गया.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl


Sunday 22 June 2014

हमने उससे उसका मुक़द्दर मांग लिया,
प्यास ने अबकी बार समंदर मांग लिया.

उसके ज़ेहन में शायद कोई घर होगा,
उसने मुझसे नींव का पत्थर मांग लिया.

मुझमें  सूना आसमान था जिसके लिए,
उड़ने वाला एक कबूतर मांग लिया.

नींद ना आई फूलों की जब सेज़ों पर,
यादों ने काँटों का बिस्तर मांग लिया.

पाँव का नश्तर, नश्तर से ही निकलेगा,
सोच के उसने किसी से नश्तर मांग लिया.

मौसम ने जब दिल के सहरा को छुआ,
रेत ने बारिश वाला मंज़र मांग लिया.

क़ुर्बानी की उसे नसीहत दी मैंने,
काट के उसने मेरा ही सर मांग लिया.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl


Friday 20 June 2014

हौंसलों की उड़ान मांगे है,
वक़्त अब इम्तिहान मांगे है.

याद आई है मुझमें रहने को,
इक पुराना मकान मांगे है.

उसने अपनी ज़ुबान कटवा ली,
अब वो मेरी ज़ुबान मांगे है.

उसने ख़ामोशियाँ तो सुन लीं हैं,
आँसुओं के बयान मांगे है.

ये ज़मीं हिल रही है अन्दर से,
ये ज़मीं आसमान मांगे है.

अब तो देकर दुहाई इज़्ज़त की,
सर मेरा ख़ानदान मांगे है.

दर्द मैं भूलना भी चाहूँ तो,
ज़ख्म अपने निशान मांगे है.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Thursday 19 June 2014

सबके ख़्वाबों को आसरा देकर,
यूँ इबादत भी की दुआ देकर.

बेख़ता हूँ ये मैंने जान लिया,
जब वो रोया मुझे सज़ा देकर.

उसकी नींदों में जागता मैं रहा,
कौन रहता है ख़ुश दगा देकर.

एक लम्हा कि जिस से मिलना था,
लापता हो गया पता देकर.

उसको जाना था वो चला ही गया,
इक बहाना मुझे नया देकर.

रह गए हम ही रास्ते में खड़े,
और लोगों को रास्ता देकर.

छीन कर ले गया सुकूं मेरा,
वो नशे की मुझे दवा देकर.

मेरी और ग़ज़लों के लिए देखें मेरा ब्लॉग,
ghazalsurendra.blogspot.in

Tuesday 17 June 2014

यूँ तो रिश्ता मेरा सभी से था,
मेरा होना मगर उसी से था.

घर था रोशन कहाँ चरागों से,
वो तो अन्दर की रौशनी से था.

ये है सच मेरी उम्र का हांसिल,
उसके होठों की बस हँसी से था.

आख़िरी सांस तक नहीं समझा,
मैं परेशान ज़िन्दगी से था.

कौन ये  जानता कि मेरा सफ़र,
दोनों आलम की बेख़ुदी से था.

कौन जुड़ता मेरी फ़क़ीरी से,
मेरा मक़सद कहाँ किसी से था.

सांस लेता रहा हवाओं से,
ज़िन्दा लेकिन मैं शायरी से था.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl


Monday 16 June 2014

बीच हमारे क्यों ये तेरा-मेरा है,
बता बदन में कौनसा हिस्सा मेरा है.

दूर हुआ तू तब ये पता लगा मुझको,
तू मुझमें है तो ये रुतबा मेरा है.

यादों को कह दो कि यहाँ नहीं आये,
तन्हाई का हर इक लम्हा मेरा है.

ख़ुदा का दर्ज़ा दे कर यही तसल्ली है,
नज़र में तेरी यार का दर्ज़ा मेरा है.

बदन इमारत जैसी है तो बता मुझे,
इसमें आख़िर कौनसा कमरा मेरा है.

कह तो रहा है इसे आशियाँ तू अपना,
इसमें लेकिन तिनका-तिनका मेरा है.

इसे इबादत ना माने तेरी मर्ज़ी,
लेकिन तेरे दर पे सजदा मेरा है.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Sunday 15 June 2014

दिल को अपने बेक़रार अब कौन करे,
इश्क़-मुश्क़ और प्यार-व्यार अब कौन करे.

सारी दुनिया को तो पागल कहता है,
इस पागल पर ऐतबार अब कौन करे.

सहराओं ने रखी है जिससे उम्मीदें,
उस बादल का इंतज़ार अब कौन करे.

बेच के गैरत नाज़ है जिसको अपने पर,
उसको जाकर शर्मसार अब कौन करे.

उसके दामन के धब्बों को धोते हुए,
अपना दामन दागदार अब कौन करे.

जिस पंछी ने सैय्यादों की सोहबत की,
उसको अपनों में शुमार अब कौन करे.

नादां हो तो उसे हिदायत दी जाए,
होशियार को होशियार अब कौन करे.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Friday 13 June 2014

था ढाल कौन औ" मेरी तलवार कौन था,
पूरे शहर में मेरा बता यार कौन था.

हम जिस्मों-जाँ से एक थे तो क्यूँ ना मिल सके,
आख़िर हमारे बीच की दीवार कौन था.

वारिस सभी थे मेरी वसीयत के अ-ख़ुदा,
लेकिन बता कि मेरा तलबगार कौन था.

जन्नत के लिए लोग खड़े थे क़तार में,
मिलने के लिए मौत से तय्यार कौन था.

खैरात बन के रिश्तों में तक़सीम हो गया,     (तक़सीम = बंट जाना)
मुझको नहीं पता मेरा हक़दार कौन था.

गंगा कभी ली हाथ में, क़ुरआन ली कभी,
सब पारसा ही थे तो गुनहगार कौन था.        (पारसा = पवित्र)

तू गर नहीं था मुझमें तो फिर ये बता मुझे,
मुझमें तेरी ही शक्ल का किरदार कौन था.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl



Thursday 12 June 2014

बिछुड़ के हमसे तुम्हें भी ख़ुशी नहीं होगी,
बिना हमारे बसर ज़िन्दगी नहीं होगी.

उजाले तुमसे नज़र भी नहीं मिलायेंगे,
छतों पे घर के कभी चाँदनी नहीं होगी.

नदी के सामने प्यासा रहूँ नहीं मुमकिन,
जहाँ मैं प्यासा रहूँगा नदी नहीं होगी.

ख़ुशी के लम्हे तुम्हारे क़दम तो चूमेंगे,
तुम्हारे चेहरे पे लेकिन हँसी नहीं होगी.

हज़ारों बातें ज़माना करेगा ऐसी भी,
किसी से हमने नहीं बात जो कही होगी.

तुम्हारे साँसे भी ख़ुद में हमें तलाशेंगी,
भले ही कह दो कि कोई कमी नहीं होगी.

हमारा नाम तो लिखने का मन करेगा मगर,
क़लम के स्याही में बाकी नमी नहीं होगी.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

Wednesday 11 June 2014

सारे दर्द उठा के रख लूँ,
ख़ुद में तुझे छिपा के रख लूँ.

ख़िदमत से मिलती है दुआएं,
मैं ये दौलत कमा के रख लूँ.

कभी तो थक के लौटेगा तू,
आ कुछ सांसे बचा के रख लूँ.

कड़ी  धूप में काम आयेंगे,
ख़्वाब सुहाने सजा के रख लूँ.

तुझे दिखाने होंगे इक दिन,
साथ में मोती वफ़ा के रख लूँ.

गर तेरी ख्वाहिश बन जाऊं,
मैं हर ख्वाहिश दबा के रख लूँ.

देख के तुझको जी करता है,
तुझको तुझसे चुरा के रख लूँ.


मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl