Tuesday 22 July 2014

था घर अपना सर बस छुपाने के क़ाबिल,
कहाँ घर था उनको बुलाने के क़ाबिल .

उन्हें तो हुनर आ गया दिल्लगी का,
हमीं ना हुए दिल लगाने के क़ाबिल .

झुका हम ही देते ये सर करके सजदा ,
मिला दर जो होता झुकाने के क़ाबिल.

लिखे नाम उसने थे जिन काग़ज़ो पर,
हमीं हर्फ़ थे बस मिटाने के क़ाबिल.

कभी लौट कर वो ना आया दुबारा ,
हुआ जब से खाने -कमाने के क़ाबिल.

शजर पर थे पंछी हजारों ही हमसे ,
हमीं थे मगर बस निशाने के क़ाबिल .

ज़माना हुआ ना तो क़ाबिल हमारे ,
ना हम हुए इस ज़माने के क़ाबिल .

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