Tuesday 8 July 2014

ढह गया वो घर जिसे पुख्ता समझ बैठे थे हम,
किस यक़ी पर आपको अपना समझ बैठे थे हम.

दूसरी दुनिया कहीं पर है  कभी सोचा न था,
आपकी दुनिया को ही दुनिया समझ बैठे थे हम.

साथ जो चलता रहा वो दूसरा ही जिस्म था,
भूल से अपना  जिसे साया समझ बैठे थे हम.

हमज़बाँ, हमराज़, हमदम, हमसफ़र और हमनशीं,
क्या बताएं आपको क्या-क्या समझ बैठे थे हम.

आपकी फ़ितरत के चेहरे थे कई समझे नहीं,
जो था शाने पर उसे चेहरा समझ बैठे थे  हम.

आप ख़ुद जैसे थे वैसा ही हमें समझा किए,
ख़ुद थे जैसे आपको वैसा समझ बैठे थे हम.

सोचते हैं अब कि कैसे बेख़ुदी में आपको,
अपनी तन्हा उम्र का रस्ता समझ बैठे थे हम.

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