Saturday 30 August 2014

वो समंदर मुझे दिखाता है,
फिर मेरा सब्र आज़माता है.

पहले पत्थर हमें डराते थे,
अब हमें आईना डराता है.

तैरना तू सिखा समंदर अब,
डूबना तो हमें भी आता है.

ये बुझाने के काम आएगा,
आग पानी में क्यों लगाता है.

तेरी आवाज़ ये सुनेंगे नहीं,
ये तो मुर्दे हैं क्यों जगाता है.

गिरने वाली हैं ख़ुद ये दीवारें,
तू इन्हें किसलिए गिराता है.

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Friday 29 August 2014

तू जब तक नाम का दरिया रहा था,
मैं तब भी साथ में प्यासा रहा था.
जिसे अपनी नज़र तू कह रहा है,
मैं उसमें मुद्दतों तन्हा रहा था.
तेरी यादों की अब जो है हवेली,
वहां मेरा कभी कब्ज़ा रहा था.
बिना तेरे भी मैं तन्हा नहीं हूँ,
तू भी मेरे साथ भी तन्हा रहा था.
नहीं कुछ भी नहीं हुआ अब मैं तेरा,
मगर सच-सच बता क्या-क्या रहा था.
हमेशा मैं तो तेरा ही था लेकिन,
नहीं लगता है तू मेरा रहा था.
मुहब्बत थी हमारे बीच में कब,
हमरे बीच तो सौदा रहा था.

कहीं बच कर निकल जाने का रस्ता ढूँढती है,
नदी जंगल में इतनी दूर तक क्या ढूँढती है,

भटकती है ये किसकी याद मुझमें इस तरह भी,
कि जैसे माँ कोई मेले में बच्चा ढूँढती है,

तलाशूँ मैं यहाँ पर किस तरह कोई सहारा ,
यहाँ तो धूप भी पेड़ों का साया ढूँढती है,

जहाँ बेटों ने उसके नाम की बिल्डिंग बनायी,
वहाँ पे कोई बुढिया घर का नक्शा ढूँढती है,

मेरा ख़ाली मकाँ अब भर गया है इस तरह भी,
ये ढ़लती उम्र अब घर में भी कमरा ढूँढती है,

नहीं बाक़ी बची है अब तलब कुछ देखने की,
ये अंधी आँख फिर क्यूँ अब भी चश्मा ढूँढती है,

मुझे अब दूर ख़ुद से भी ज़रा होना पड़ेगा ,
सुना है ज़िन्दगी मुझको दुबारा ढूँढती है,

Thursday 28 August 2014

कुछ न होगा वक़्त की तब्दीलियों को देख कर,
गर संभल जाओगे अपनी ग़लतियों को देख कर.

देख कर औलाद का ग़म रो पड़ा वो इस तरह ,
जैसे दरिया रो पड़ा हो मछलियों को देख कर.

जंग के मैदान से बेटे ने लिक्खीं थी कभी,
आज भी रोती है माँ उन चिठ्ठियों को देख कर.

जिनके हाथों में नहीं बस्ते मगर बन्दूक हैं,
कांप जाता है ये दिल उन उँगलियों को देख कर.

दोस्ती अपनी है रंगों से इबादत की तरह,
अब भी हो जाता हूँ बच्चा तितलियों को देख कर.

इस यकीं पर ख्व़ाब खेतों में उगेंगे एक दिन,
कितना ख़ुश होता हूँ उड़ती बदलियों को देख कर.

छप्परों ने जब से अपने आप को पुख्ता किया,
अब नहीं डरता मेरा घर बिजलियों को देख कर .

Wednesday 27 August 2014

एक तरफ़ तो लोग खड़े हैं नींद में ख्व़ाब जलाने को,
और दूसरी तरफ़ हैं हाज़िर लोग उन्हें दफ़नाने को.

गूंगे ,बहरे ,बेगैरत और ज़ाहिल आज न सुनें मगर ,
वक़्त लिखेगा ,लोग सुनेंगे .कल मेरे अफ़साने को.

अय्याशी कर छोड़ गया था वक़्त तो उसको रस्ते में,
हमने घर में लाकर पाला ,लावारिस वीराने को.

वक़्त बिताया साथ में यूँ भी,रंग-बिरंगे रिश्तों ने ,
जैसे चाबीदार खिलौना था मैं दिल बहलाने को.

जिससे पूछो वही कहेगा ,वक़्त पुराना था अच्छा ,
लेकिन पाल रहे हैं सब तो घर पर नए ज़माने को.

अपने वतन को छोड़ के पंछी जा तो रहे हो तुम लेकिन,
ऐसा ना हो गैर मुल्क में तरसो दाने -दाने को.

तन्हाई भी अगर छोड़ के जायेगी दामन मेरा ,
भुला सकेगी आख़िर कैसे मुझ जैसे दीवाने को. 

Tuesday 26 August 2014

मुझे कुछ इस तरह महबूब का दर मिल गया है,
किसी बच्चे को ज्यूँ खोया हुआ घर मिल गया है.

बदन तो रेत का है मैं मगर इसमें बहूँगा ,
मुझे इस रेत में गहरा समंदर मिल गया है.

मेरे सर को कुचलने की जो साज़िश में लगा था ,
मुझे अपने ही घर में अब वो पत्थर मिल गया है.

मुझे छू कर मुक़द्दर ने कहा हैरान हो कर,
तुझे पाकर मुझे मेरा मुक़द्दर मिल गया है.

जहाँ तुम कह रहे हो राज करता है अँधेरा ,
वहां की है ख़बर अंधे को तीतर मिल गया है.

नहीं है करबला तो फिर जगह ये कौनसी है,
यहाँ कैसे कोई काटा हुआ सर मिल गया है.

पसीने की वो बदबू से परेशां हो रहे हैं,
किसी मजदूर का लगता है बिस्तर मिल गया है.

Monday 25 August 2014

जंगल में जाकर आवाज़ें लगा रहा हूँ ख़ुद को मों,
बूढ़े पेड़ों के सायों में बुला रहा हूँ ख़ुदको मैं.

मेरे यार का जिस रस्ते में रोज़ का आना-जाना है,
रोशन करने को वो रस्ते जला रहा हूँ ख़ुद को मैं .

उसके फाड़े हुए ख़तों को जोड़ा तो महसूस हुआ,
टुकड़े-टुकड़े बीन के जैसे उठा रहा हूँ खुद को मैं.

देर रात को आग बुझाने कौन आएगा सोच के ये,
दरवाज़े पर दस्तक देकर जगा रहा हूँ ख़ुद को मैं.

बाज़ारों में आ तो गया हूँ बिकने को फिर भी देखो,
अपने लोगों की नज़रों से बचा रहा हूँ ख़ुद को मैं.

मेरे आंसू देख के मेरा यार बहुत खुश होता है,
जब से राज़ खुला है मुझ पररुला रहा हूँ ख़ुद को मैं.

अपने बुरे वक़्त में कैसे ऐश करूँ जब ये सोचा,
तन्हाई में ख़ुद की ग़ज़लें सुना रहा हूँ ख़ुद को मैं.

Friday 22 August 2014

मुझको गाते हैं अँधेरे रोशनी का गीत हूँ,
मौत चाहे लिख रही हो ज़िन्दगी का गीत हूँ.

मुझको दरियाओं ने चाहे शोर में दफ़ना दिया,
मैं किनारों पर लिखा इक तिश्नगी का गीत हूँ.

मंदिरों और मस्ज़िदों में परवरिश ना पा सका,
उस ही मालिक की मगर में बंदगी का गीत हूँ.

मुझको फूलों ने लिखा है तितलियों के पंख से,
ख़ुश्बूओं वाली किसी मैं डायरी का गीत हूँ.

एक दिन दुश्मन भी मुझको दिल से अपने गायेंगे ,
मैं हूँ रिश्तों की इबादत दोस्ती का गीत हूँ.

मेरे अश्कों की इबारत कह रही है आज भी,
आने वाले कल के बच्चों की हंसी का गीत हूँ.

मेरे हर अल्फ़ाज़ को अपना समझ कर तुम पढ़ो,
इस तरह से गाओ जैसे आपका ही गीत हूँ.

मेरी ख़ुद्दारी से ये मेरे उसूलों ने कहा ,
धूप की तू शायरी मैं चांदनी का ग़ीत हूँ.

सच है दाने-दाने को हम उसके ही मोहताज़ रहे,
लेकिन साथ ना छोड़ा चाहे कुनबे से नाराज़ रहे,

दुनिया के किरदार हज़ारों हमने जी कर देख लिए,
अलग तौर से लेकिन अपने जीने के अंदाज़ रहे,

कहते हैं अब बनवायेंगे वो भी हवेली शीशे की,
ख़ानदान में जिनके सारे लोग निशानेबाज़ रहे.

शाख़ छोड़ते वक़्त हमेशा पेड़ दुआ देता है ये,
तेज़ हवा में सही सलामत पंछी की परवाज़ रहे,

उस दर के दरबान रहे हम, उसकी गुलामी की हमने,
वो जिसके क़दमों में दुनिया भर के तख़्त-ओ-ताज़ रहे,

अपने हक़ में हाथ उठाना आता है हमको लेकिन,
मुफ़लिस और मज़लूमों की ही बनकर हम आवाज़ रहे, (मज़लूमों = बेसहारा)

वो जो कुछ भी बोला मुझमें सिर्फ़ उसी को दोहराया,
अपनी हर इक ग़ज़ल में शामिल उसके ही अलफ़ाज़ रहे.

Tuesday 19 August 2014

ज़ेहन में मेरे सूरज बन कर उगता है महबूब मेरा,
मेरी तन्हाई को रोशन करता है महबूब मेरा.

ज़मीं,आसमां ,पर्वत,दरिया ,बादल गिरते झरनों में,
नज़रें जहाँ-जहाँ भी जाएँ ,दिखता है महबूब मेरा.

इश्क़ में प्यास की शिद्दत बढ़ कर ,जब मुक़ाम पे आती है,
सहराओं में दरिया बन कर ,बहता है महबूब मेरा.

ना जाने कैसे ढल जाता ,मेरा सफ़र नमाज़ों में ,
ज़ख्मी पांवों से मेरे जब चलता है महबूब मेरा .

तलबगार मैं उसका हूँ या तलबगार वो है मेरा ,
पता नहीं लेकिन ख़ुद आकर मिलता है महबूब मेरा.

मेरी तो हर सांस उसे ही कहती है महबूब मगर,
देखूं कब महबूब मुझे भी कहता है महबूब मेरा .

दिल के हर कोरे काग़ज़ पे अहसासों के रंगों से ,
ऊँगली मेरी पकड़ के ग़ज़लें लिखता है महबूब मेरा .

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कुछ कभी गौर से पढ़ा भी है,
इस हथेली पे कुछ लिखा भी है.

मुझको सहरा तो कह रहा है तू,
मेरे बारे में कुछ पता भी है.

मिलता रहता है फासलों से मगर,
मुझमें कोई  तो दुसरा भी है.

तुम हो मालिक मेरे तुम्हें सजदा,
मेरे आगे मगर ख़ुदा भी है.

ख़ाल शेरों की, बूढ़ी तस्वीरें,
इस हवेली में कुछ नया भी है.

छीन कर हर पुराने पत्ते  को,
मुझपे मौसम ने कुछ लिखा भी है.

अपनी ग़ज़लों से ये ज़रा पूछो,
दर्द पैदा कभी हुआ भी है.

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Friday 15 August 2014

ये भी सच है दरियाओं से अपनी फ़ितरत मिलती है,
लेकिन फिर भी सहराओं से जाकर क़िस्मत मिलती है.

तूफ़ानों के बाद नशेमन फिर से बनाने लगते हैं,
देख परिंदों की हिम्मत को कितनी हिम्मत मिलती है.

जाने कौन-कौन सी दुनिया ढूंढ रहे इस दुनिया में,
ख़ुद में पल तो पल रहने की किसको फ़ुर्सत मिलती है.

हम अपने ज़मीर को गिरवी कब रखने बाज़ार गए,
जान के भी ऐसे लोगों को अच्छी क़ीमत मिलती है.

सूरज के वारिस होकर भी खड़े अँधेरे के आगे,
देख रहे हैं ख़ानदान की किसे वसीयत मिलती है.

दुआ बुज़ुर्गों की पाकर ही हमने ये महसूस किया,
दौलत, शौहरत, शानो-शौक़त और हैसियत मिलती है.

दरग़ाहें आवाज़ लगाने लगती हैं मुझको अक्सर,
ना जाने अब किस फ़क़ीर से अपनी सूरत मिलती है.

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Sunday 10 August 2014

बिछुड़े बेटे से जैसे मिले कोई माँ,
मुझको ऐसे मिली सूफ़ियों की ज़ुबां.

ख़ुद से हम जब मिले भी तो ऐसे मिले,
बारिशों में मिले जैसे जलता मकाँ.

मैं ज़मीं था मगर मेरी ज़िद ये रही,
मुझको छूने की ख़ातिर झुके आसमां.

मेरा होकर भी तूने रखी दूरियाँ,
तू कहाँ मैं कहाँ, मैं कहाँ तू कहाँ.

पंछियों की तरह मैंने पाला इन्हें,
यूँ नहीं हो गए ख़्वाब मेरे जवाँ.

मेरे बाहर  कड़ी धूप का था सफ़र,
मेरे अन्दर था लेकिन कोई सायबां.   सायबां = छायादार

मेरी नज़रों में तू जो रहा उम्र भर,
मेरी साँसों का चलता रहा कारवाँ.

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Friday 8 August 2014

मेरा यार इश्क़ के ऐसे इक अफ़साने जैसा है,
लिखा पुराने वक़्त ने लेकिन नए ज़माने जैसा है.

मेरे यार का होना मुझमें कैसा है ये पूछ ना तू,
ख़ुदा के घर में छिपा के रक्खे हुए ख़ज़ाने जैसा है.

मेरा यार तो दीवानों की भीड़ में ही रहता है गुम,
कौन उसे पहचान सकेगा किस दीवाने जैसा है.

मंदिर, मस्ज़िद, गिरज़ाघर और गुरुद्वारे में गया नहीं,
मेरा यार तो ख़ुद क़ुदरत के इक नज़राने जैसा है.

मेरे यार से जुड़ना लेकिन इतना भी आसान नहीं,
सब के साथ में रहता है लेकिन बेगाने जैसा है.

इस दुनिया से उस दुनिया तक मेरे यार का  है रूतबा,
मेरे यार के नाम का लोहा हर कोई माने जैसा है.

यारी रखकर अपने यार से मैंने जान लिया है ये,
दुनिया में बस यार ही मेरा दिल में  बसाने जैसा है.

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Tuesday 5 August 2014

मुझमें मेरा कहीं ख़ुदा है कोई,
मेरे बारे में सोचता है कोई.

इश्क़ को मेरे कौन समझेगा,
मैं किसी का हूँ ढूंढता है कोई.

कल तलक़ अजनबी समझता था,
अब दुआओं में मांगता है कोई.

जब करूँ नेकियाँ तो लगता है,
मेरे अन्दर भी झांकता है कोई.

मुझको बिस्तर सुबह बताते हैं,
मेरे सोने पे जागता है कोई.

साथ जैसे फ़क़ीर चलता हो,
उम्र मुझमें भी काटता है कोई.

अपनी फ़ितरत से मैं भी सूफ़ी हूँ,
हूँ किसी का मैं पालता है कोई.

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Monday 4 August 2014

ख़ुद के साथ ही रहकर सारी उम्र बिताई हमने तो,
तन्हाई में ख़ामोशी को ग़ज़ल सुनाई हमने तो.

पीछे-पीछे दरिया कितने बहते सारी उम्र रहे,
क़तरा-क़तरा जोड़ के फिर भी प्यास बुझाई हमने तो.

सूरज से भी रिश्तेदारी यूँ तो अपनी रही मगर,
मिट्टी के ही दीये से उम्मीद लगाई हमने तो.

अपनी ख़ुद्दारी ज़मीर को ज़िन्दा रखा उसूलों से,
दुनिया चाहे कहती रहे कि उम्र गंवाई हमने तो.

वचन नहीं तोड़ा कोई भी अपनी जान बचाने  को,
ख़ानदान वाली रघुकुल की रीत निभाई हमने तो.

सच बोले तो सर ना बचेगा जंग में जब ऐलान हुआ,
जान बचाई लोगों ने और आन बचाई हमने तो.

इस दुनिया की धन दौलत और शौहरत चाहे नहीं मिली,
दुआ कमाकर उस दुनिया की करी कमाई हमने तो.

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Sunday 3 August 2014

माना ये कि शापित चम्बल, ना तू है ना मैं ही हूँ,
लेकिन सच है कि गंगाजल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

मिट्टी के दीयों ने सारी रात जलाकर पाला था,
माँ का वही बनाया काजल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

भीतर से भी खुल सकते हो, बाहर से भी खुलते हों,
ऐसे दरवाज़े की सांखल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

अपनी-अपनी खुशबु से पहचान बना ली दोनों ने,
चन्दन वन जैसा विन्ध्याचल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

साँसों की सुर-ताल के आगे, बजती है जो हर इक पल,
समय के पांवों की वो पायल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

दूर देश से आकर बरसें, खेतों और खलिहानों में,
बरसने वाला वो इक बादल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

बूढ़े इक फ़क़ीर ने जिसको, ओढ़ा और बिछाया था,
रूह में लिपटा हुआ वो कम्बल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

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