Monday 25 August 2014

जंगल में जाकर आवाज़ें लगा रहा हूँ ख़ुद को मों,
बूढ़े पेड़ों के सायों में बुला रहा हूँ ख़ुदको मैं.

मेरे यार का जिस रस्ते में रोज़ का आना-जाना है,
रोशन करने को वो रस्ते जला रहा हूँ ख़ुद को मैं .

उसके फाड़े हुए ख़तों को जोड़ा तो महसूस हुआ,
टुकड़े-टुकड़े बीन के जैसे उठा रहा हूँ खुद को मैं.

देर रात को आग बुझाने कौन आएगा सोच के ये,
दरवाज़े पर दस्तक देकर जगा रहा हूँ ख़ुद को मैं.

बाज़ारों में आ तो गया हूँ बिकने को फिर भी देखो,
अपने लोगों की नज़रों से बचा रहा हूँ ख़ुद को मैं.

मेरे आंसू देख के मेरा यार बहुत खुश होता है,
जब से राज़ खुला है मुझ पररुला रहा हूँ ख़ुद को मैं.

अपने बुरे वक़्त में कैसे ऐश करूँ जब ये सोचा,
तन्हाई में ख़ुद की ग़ज़लें सुना रहा हूँ ख़ुद को मैं.

No comments:

Post a Comment