Friday 29 August 2014

कहीं बच कर निकल जाने का रस्ता ढूँढती है,
नदी जंगल में इतनी दूर तक क्या ढूँढती है,

भटकती है ये किसकी याद मुझमें इस तरह भी,
कि जैसे माँ कोई मेले में बच्चा ढूँढती है,

तलाशूँ मैं यहाँ पर किस तरह कोई सहारा ,
यहाँ तो धूप भी पेड़ों का साया ढूँढती है,

जहाँ बेटों ने उसके नाम की बिल्डिंग बनायी,
वहाँ पे कोई बुढिया घर का नक्शा ढूँढती है,

मेरा ख़ाली मकाँ अब भर गया है इस तरह भी,
ये ढ़लती उम्र अब घर में भी कमरा ढूँढती है,

नहीं बाक़ी बची है अब तलब कुछ देखने की,
ये अंधी आँख फिर क्यूँ अब भी चश्मा ढूँढती है,

मुझे अब दूर ख़ुद से भी ज़रा होना पड़ेगा ,
सुना है ज़िन्दगी मुझको दुबारा ढूँढती है,

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