Wednesday 27 August 2014

एक तरफ़ तो लोग खड़े हैं नींद में ख्व़ाब जलाने को,
और दूसरी तरफ़ हैं हाज़िर लोग उन्हें दफ़नाने को.

गूंगे ,बहरे ,बेगैरत और ज़ाहिल आज न सुनें मगर ,
वक़्त लिखेगा ,लोग सुनेंगे .कल मेरे अफ़साने को.

अय्याशी कर छोड़ गया था वक़्त तो उसको रस्ते में,
हमने घर में लाकर पाला ,लावारिस वीराने को.

वक़्त बिताया साथ में यूँ भी,रंग-बिरंगे रिश्तों ने ,
जैसे चाबीदार खिलौना था मैं दिल बहलाने को.

जिससे पूछो वही कहेगा ,वक़्त पुराना था अच्छा ,
लेकिन पाल रहे हैं सब तो घर पर नए ज़माने को.

अपने वतन को छोड़ के पंछी जा तो रहे हो तुम लेकिन,
ऐसा ना हो गैर मुल्क में तरसो दाने -दाने को.

तन्हाई भी अगर छोड़ के जायेगी दामन मेरा ,
भुला सकेगी आख़िर कैसे मुझ जैसे दीवाने को. 

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