Wednesday 28 May 2014

ये भी सच है साथ निभाना मुश्किल था,
दिल से लेकिन नाम मिटाना मुश्किल था.

आईनों ने किया था इतना शर्मिंदा,
ख़ुद को ख़ुद की शक्ल दिखाना मुश्किल था.

गर ना हौंसले तैराकी सीखे होते,
उस दरिया को तैर के जाना मुश्किल था.

हम ज़मीर को वहां से ज़िन्दा ले आये,
जहाँ से वापस लौट के आना मुश्किल था.

ग़म के ऐसे बाज़ारों में हम थे जहाँ,
ज़ख़्म बेचकर दर्द कमाना मुश्किल था.

काठ की हांडी बनकर जो रिश्ते आए,
उन्हें आग पर फिर से चढ़ाना मुश्किल था.

जिस महफ़िल में सिर्फ़ मसखरे बैठे थे,
उसमें अपनी ग़ज़ल सुनाना मुश्किल था.

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Tuesday 27 May 2014

उसने वापस लौट के आना छोड़ दिया,
मैंने भी आवाज़ लगाना छोड़ दिया.

गले लगाना उसने नामंज़ूर किया,
मैंने उससे हाथ मिलाना छोड़ दिया.

उसने मुझसे यादें वापस क्या मांगी,
मैंने भी वो बड़ा ख़ज़ाना छोड़ दिया.

हँसते-हँसते जहाँ उम्र काटी मैंने,
रोते-रोते वही ठिकाना छोड़ दिया.

उसने पूछा जियोगे तुम अब कैसे,
मैंने हाथों से पैमाना छोड़  दिया.

जंगल जैसा जब महसूस हुआ मुझको,
शहर में मैंने आना-जाना छोड़ दिया.

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Monday 26 May 2014

पाप बहा कर पुण्य कमाने आते हैं,
मुझमें अक्सर लोग नहाने आते हैं.

वही लोग अपना कह देते हैं मुझको,
जो मुर्दों का बोझ उठाने आते हैं.

इक दीवार गुनाहों की हूँ मैं जिस पर,
लोग रात को नाम मिटाने आते हैं.

भीतर मेरे आने से डरते हैं सब,
बाहर से आवाज़ लगाने आते हैं.

उसकी घर में तन्हाई मिलती शोर नहीं,
जिस घर में अक्सर दीवाने आते हैं.

उस से भी मिलने को मन करता है क्यूँ,
जिसे जुदा होने के बहाने आते हैं.

जिन लम्हों ने कभी अलविदा कहा मुझे,
वो लम्हे अब मुझे बुलाने आते हैं.

जो आईने टूट गए ख़ुद के आगे,
वो भी अब मुझसे टकराने आते हैं.

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Sunday 25 May 2014

मुद्दतों बाद मेरी सोच का मानी निकला,
शख्स जो दिल में बसा था वो कहानी निकला.

मुद्दतों बाद मेरे दर्द को छुआ उसने,
मुद्दतों बाद मेरी आँख से पानी निकला.

वक़्त ने रखके जिसे भूलना बेहतर समझा,
प्यार ऐसी ही कोई चीज़ पुरानी निकला.

उम्र काटी थी कभी जिसने मेरे पहलू  में,
वो ही अहसास मेरा तेरी ज़ूबानी निकला.

टूट के जुड़ने का फिर जुड़ के टूटने का सफ़र,
मेरे दिल का ना कोई दुनिया में सानी निकला.

जिसकी हर एक ख़ुशी मुझसे रही बाबस्ता,
मेरा हर ज़ख्म फ़क़त उसकी निशानी निकला.

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Saturday 24 May 2014

तन्हाई को जब भी मैं, नज़दीक बुलाता हूँ,
सबसे पहले ख़ुद को ही, आवाज़ लगाता हूँ.

इन उलझी लकीरों में, लिक्खा हो कहीं तू भी,
ये सोच नज़ूमी को, मैं हाथ दिखाता हूँ.        (नज़ूमी = ज्योतिषी)

मत पूछो हवाओं तुम, दरिया के किनारों पर,
मिट्टी पे मैं ऊँगली से, क्या लिखता-मिटाता हूँ.

जब रात परेशाँ हो, मेरे किसी अपने की,
टूटी हुई नींदों में, ख़्वाबों को सजाता हूँ.

जब लौट के आते हैं, अपने हों या बेगाने,
क़दमों से उठाता हूँ, सीने से लगाता हूँ.

रो पड़ता है जब मुझमें, यादों का कोई बच्चा,
जगता हूँ भले ही मैं, पर उसको सुलाता हूँ.

दुश्मन को भी अब फ़ितरत, मालुम है ये मेरी,
वो हाथ बढ़ाते हैं, मैं हाथ मिलाता हूँ.

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Friday 23 May 2014

वो पढ़ रहा था मुझको, मैं उसकी क़िताब था,
उसके हर इक सवाल में मेरा जवाब था.

लुटने का मुझको नींद में अफ़सोस है यही,
छीना गया जो आँख से वो उसका ख़्वाब था.

मैं उसको हंसाता ही रहा सोच कर यही,
मैं जानता था रोना उसे बेहिसाब था.

होठों से छीनता रहा मरने की दुआएं,
जीने से मेरे दुनिया का खाना ख़राब था.

करनी पड़ी थी उसको अंधेरों से बग़ावत,
आँखों में क्योंकि उगता हुआ आफ़ताब था.     (आफ़ताब = सूरज)

मंज़िल नहीं थी कोई कहीं जानते हुए,
गुज़रा जो सफ़र साथ में वो लाजवाब था.

वो शख्स जिसकी मुट्ठियाँ ना वक़्त से खुलीं,
शायद उसी की मुट्ठियों में इन्क़लाब था.

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Thursday 22 May 2014

इस दुनिया में कोई हमारा है कि नहीं,
अपना भी जीने का सहारा है कि नहीं.

कश्ती ने घबरा कर आख़िर पूछ लिया,
इस दरिया का कोई किनारा है कि नहीं.

मैंने कुछ भी किया मगर यह जान के ही,
उसका मेरी तरफ़ इशारा है कि नहीं.

उम्र काटनी है तो उस से  पूछ भी लो,
साथ में रहना उसे गवारा है कि नहीं.

जा तो रहे हो छोड़ के लेकिन सोच भी लो,
इस घर में फिर  आना दुबारा है कि नहीं.

ऐतबार उस पर दोनों का है लेकिन,
वो मेरा है मगर तुम्हारा है कि नहीं.

घर का मौसम पूछ रहा है आँगन से,
आसमान में कोई सितारा है कि नहीं.

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Wednesday 21 May 2014

होकर मैं अपने आप से रुसवा चला गया,
तन्हाईयों के शहर में तन्हा चला गया.

कोई तो बात उसमें यक़ीनन ज़रूर थी,
सजदे में उसके, सर मेरा झुकता चला गया.

अफ़साना मेरा हो गया इस तरहा मुक़म्मल,
कहता रहा मैं और वो सुनता चला गया.

माना गया है वो मेरे घर से तो आज ही,
दिल से मगर वो दूर तो कब का चला गया.

क़तरे की प्यास है उसे कहता तो यही था,
दरिया को पीके शख्स जो प्यासा चला गया.

जिस दिन से पंछियों ने कहा अलविदा मुझे,
उस दिन से मेरे घर का सवेरा चला गया.

इक तू गया तो उम्र भी उदास सी लगी,
वरना तो मेरी ज़ीस्त से क्या-क्या चला गया.     (ज़ीस्त = ज़िंदगी)

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Tuesday 20 May 2014

अब कोई इम्तिहान है ही नहीं,
दूर तक आसमान है ही नहीं.

बात मैं आसुओं से करता हूँ,
मेरे मुहँ में ज़ुबान है ही नहीं.

मैं शहर को बुझाने क्या जाऊं,
मेरा अपना मकान है ही नहीं.

तुम हो पत्थर, तुम्हें लुढ़कना है,
और आगे ढलान है ही नहीं.

एक सूरज हूँ ऐसा  मैं जिसको,
रौशनी का गुमान है ही नहीं.

उसके तलवे भी चाट लो चाहे,
वक़्त अब मेहरबान है ही नहीं.

मेरी ग़ज़लों के साथ चलते रहो,
इस सफ़र में थकान है ही नहीं.

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Monday 19 May 2014

पागल हूँ और पागल को समझाना क्या,
ख़ुद से ना बोले तो करे दीवाना क्या.

यार नज़र आता है चारों ओर मुझे,
मंदिर क्या, मस्ज़िद क्या औ' मयखाना क्या.

वक़्त मुझे क्यों इतनी गौर से सुनता है,
बन जाऊँगा मैं भी इक अफ़साना क्या.

सन्नाटों ने खोल दिए हैं दरवाज़े,
मिलने मुझसे आएगा वीराना क्या.

बिन मांगे ही या तो वो दे दे वरना,
आगे होकर झोली को फैलाना क्या.

जिस दुनिया को फ़ानी मैंने मान लिया,
उस दुनिया को खोना क्या और पाना क्या.

मेरे बढ़ते क़दमों को ना रोको तुम,
मैं फ़क़ीर हूँ, मेरा ठौर-ठिकाना क्या.

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Sunday 18 May 2014

सूखी शाख़ पे जब पत्ता फूटा होगा,
उसने मेरे बारे में सोचा होगा.

यही सोच कर और किसी से नहीं मिला,
मैं तन्हा हूँ, वो भी तो तन्हा होगा.

मैं सुनता हूँ उसको गर तन्हाई में,
वो मुझको ख़ामोशी में सुनता होगा.

मेरे पास पुराना सब महफ़ूज़ है तो,        (महफ़ूज़ = सुरक्षित)
उसके पास भी गुज़रा हर लम्हा होगा.

गुमसुम हो जाता हूँ मैं भी शाम ढले,
किसी शाम वो भी उदास होता होगा.

मेरे अश्क़ सुखाने को गर सहरा है,
उसके पास भी रोने को दरिया होगा.

मिलकर भी जब मिल ना सके हों इक लम्हा,
वापस मिल जाने से भी अब क्या होगा.

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Friday 16 May 2014

तू है माना बेखता मेरी तरह,
फिर भी काटेगा सज़ा मेरी तरह.

तंग अपने जिस्म से इतना है तो,
देखना होगा रिहा मेरी तरह.

सुख का वो लम्हा जिसे सब ढूंढते,
इन दिनों है लापता मेरी तरह.

हादसे रस्ता तुझे दिखलायेंगे,
उनको देता रह दुआ मेरी तरह.

छोड़कर मुझको कहाँ अब जायेगी,
है घुटन भी बावफ़ा मेरी तरह.

हौंसला तुझमें अगर बाकी नहीं,
वक़्त को मत आज़मा मेरी तरह.

ज़िन्दगी छोटी बहर की है ग़ज़ल,
लिख इसे फिर गुनगुना  मेरी तरह.

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Thursday 15 May 2014

काँटों को क़दमों में बसाना पड़ता है,
जब फूलों का बोझ उठाना पड़ता है.

हवा की औलादें जब आंधी बन जातीं,
ख़ुद का घोंसला ख़ुद को बचाना पड़ता है.

एतबार के खौफज़दा हो जाने पर.       (खौफज़दा = भयातुर)
पास मसीहाओं के जाना पड़ता है.

नासमझों और कमज़र्फों की महफ़िल में,      (कमज़र्फों = कम गहरे)
समझदार को चुप हो जाना पड़ता है.

जज़्बे को ज़िन्दा रखना आसान नहीं,
हर ख्वाहिश का गला दबाना पड़ता है.

सूरज का छोटा भाई है फिर भी क्यूँ,
हर चराग़ को सुबह बुझाना पड़ता है.

उसकी हथेली जब सूनी लगने लगती,
ख़ुद का लिक्खा नाम मिटाना पड़ता है.

इश्क़ में ऐसे मौके भी आते हैं जब,
ज़ख्म दिखे तो दर्द छुपाना पड़ता है.

घूम के सारी दुनिया हम भी देख चुके,
लौट के वापस घर को आना पड़ता है.

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Wednesday 14 May 2014

जितना उसने दर्द सहा है,
उतना ही ख़ामोश लगा है.

अब यह रात कटेगी कैसे,
याद का बच्चा जाग उठा है.

मन जाने किस चौराहे पर,
घर का रस्ता भूल गया है.

बेहतर है कुंदी मत खोलो,
दरवाज़े पर दर्द खड़ा है.

आते जाते रहे परिंदे,
पेड़ तो तन्हा का तन्हा है.

ग़म रहता उतने का उतना.
रो लेने से क्या होता है.

चढ़ा रहा हूँ पूजा का जल,
पीपल कब का सूख गया है.

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आते तो हैं लोग यहाँ पर आने को,
लेकिन अपना खाली वक़्त बिताने को.

किसने साथ रखे हैं काँच के पैमाने,
नशा हुआ कि भूल गए मयखाने को.

अजब शख्स है अब भी सम्भाले बैठा है,
ख़ानदान के गिरवी रखे ख़ज़ाने को.

तू सबसे तो वफ़ा की बातें करता है,
कौन सुनेगा अब तेरे अफ़साने को.

उस पंछी के अब भी कई घौंसले हैं,
चाहे वो मोहताज़ है दाने-दाने को.

उसे हादसे छोड़ गए हैं अब घर में,
दीवारों से सर अपना टकराने को.

अगर वक़्त से इतना ही नाराज़ है तू,
ढूंढ के ले आ गुज़रे हुए ज़माने को.

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Monday 12 May 2014

ख़्वाबों की भीड़ से कई सालों से दूर हूँ,
फूलों पे चल रहा हूँ मैं, छालों से दूर हूँ.

पढ़ ले ना तेरा नाम कोई मेरी शक्ल से,
मुद्दत से इसलिए मैं उजालों से दूर हूँ.

जब तू नहीं था साथ मेरे ये थे सब मगर,
मैं अब तसव्वुरों से, ख़यालों से दूर हूँ.

कल तक भी मुझे दूर से ही पूछते रहे,
मैं आज भी दुनिया के सवालों से दूर हूँ.

अच्छा हुआ कि कोई मेरा घर ना बन सका,
दरवाज़ों, कुन्दियों से मैं तालों से दूर हूँ.

जब से लिखा है ख़ुद पे तेरा नाम और पता,
मैं इनके, उनके, सबके हवालों से दूर हूँ.

ऐसा क़माल कर दिया तेरे क़माल ने,
सारे तिलिस्म, जादू, क़मालों से दूर हूँ.

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Sunday 11 May 2014

ख़ुद में ही रह के वक़्त बिताने का शौक़ है,
आने का शौक़, ना कही जाने का शौक़ है.

काग़ज़ क़लम से दोस्ती रखता है  इसलिए,
इक नाम उसको लिख के मिटाने का शौक़ है.

दुश्मन के घर गया तो यही सोच कर गया.
शायद उसे भी हाथ मिलाने का शौक़ है.

बैठे हैं हम दरख़्त के साये में इसलिए,
सायों की तरह उम्र बिताने का शौक़ है.

सूखी हुई नदी के किनारों की तरह हैं,
रिश्ते बना के हमको निभाने का शौक़ है.

ऐसे ही पंछियों के साथ हम रहे जिन्हें,
खाने का शौक़ है, ना कमाने का शौक़ है.

वो लोग ही रहेंगे मेरे दिल में उम्र भर,
ग़ज़लों को जिन्हें सुनने-सुनाने का शौक़ है.

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Saturday 10 May 2014

मुद्दत बाद हुआ कल ये भी, मुझमें कोई नज़र आया,
मुद्दत बाद लौट के जैसे वापस कोई घर आया.

मुद्दत बाद बदन को जैसे रूहानी अहसास हुआ,
मुद्दत बाद कोई पलकों में बन कर ख़्वाब उतर आया.

मुद्दत बाद मेरी तन्हाई उठ कर जैसे खड़ी हुई,
मुद्दत बाद मैं साथ किसी के अन्दर से बाहर आया,

मुद्दत बाद खुशबुएँ लौटीं, उम्मीदों के पंख लगा,
मुद्दत बाद हवा का झौंका खिड़की से अन्दर आया.

मुद्दत बाद किनारे आकर, लहरों ने इक नाम लिखा,
मुद्दत बाद रेत का चेहरा, अपने आप उभर आया.

मुद्दत बाद किसी मस्ज़िद में, जैसे नमाज़ें अदा हुईं,
मुद्दत बाद किसी मंदिर में, पूजा का पत्थर आया.

मुद्दत बाद पुकारा तुमने और महसूस हुआ मुझको,
मुद्दत बाद जिधर जाना था, मुद्दत बाद उधर आया.

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Friday 9 May 2014

धूप में जाकर सायों जैसी बातें करना,
बिन बच्चों के माओं जैसी बातें करना.

मेरी बातों का सच क्या है मैं ही जानूं,
जंगल में दरगाहों जैसी बातें करना.

चलते-चलते किसी मोड़ पर थम जाना फिर,
ख़ुद से तेज़ हवाओं जैसी बातें करना.

घाटी में आवाज़ें देकर चुप हो जाना,
हर इक बार गुफ़ाओं जैसी बातें करना.

वीरानों में यादों के कुछ शहर बसाकर,
उजड़ गए कुछ गाँवों जैसी बातें करना.

आज़ादी के लिए दुआएं देते हुए भी,
काटी हुई सज़ाओं जैसी बातें करना.

दीवाना हूँ, पागल हूँ मैं, इश्क़ में तेरे,
मुझसे पाक़ निग़ाहों जैसी बातें करना.

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Thursday 8 May 2014

ना तो मैं हूँ, ना ही मेरी परछाई है,
मुझमें कैसी काली रात उतर आई है.

चाँद, सितारे डर कर जाने कहाँ छिप गए,
घर की छत पर मैं हूँ मेरी तन्हाई है.

सन्नाटों के ख़ाली कुए क़ैद हैं मुझमें,
बाहर चारों और मेरे अंधी खाई है.

पीछे-पीछे सच मेरा चलता है पैदल,
आगे-आगे दौड़ने वाली रुसवाई है.

बदन के अन्दर बेलिबास मेरा ज़मीर है,
बदन के बाहर पूरा शहर तमाशाई है.

ढलने को है उम्मीदों की शाम भी अब तो,
औ' कम होती जाती मेरी बीनाई है.

नापेगा कैसे कोई मेरे वजूद को,
ऊंचाई से ज्यादा मेरी गहराई है.

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Wednesday 7 May 2014

धूप में हल्की, ठंडी फुहारों जैसा हूँ,
क़ुदरत से मैं मिले इशारों जैसा हूँ.

माँ ने जब से पल्लू में बाँधा मुझको,
चंदा, सूरज और सितारों जैसा हूँ.

मेरी फ़ितरत क्या समझोगे तुम लोगों,
मैं पहाड़, मैदान पठारों जैसा हूँ.

सोच समझ कर क़दम बढ़ाता हूँ आगे,
सजी हुई डोली के कहारों जैसा हूँ.

ख्वाहिश की मैं ऊंची एक पहाड़ी पर,
दूर-दूर तक लगे चिनारों जैसा हूँ.

बदन में मेरी मंज़र पैदा होते हैं,
मैं रूहानी हसीं, नज़ारों जैसा हूँ.

ना तो बिका हूँ ना ही कभी बिक पाऊंगा,
ये ना समझना मैं भी हज़ारों जैसा हूँ.

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Tuesday 6 May 2014

नाम मिटा कर किसी का जब लिक्खा होगा,
उसने कितनी बार मुझे सोचा होगा.

बंद किए होंगे जब शाम को दरवाज़े,
खिड़की से सूना रस्ता देखा होगा.

बिछुड़ के मुझसे साथ बिताए लम्हों को,
उसने अपने सजदों में ढूँढा होगा.

सूख गई है शाखें फिर भी बैठा है,
सोचो वो पंछी कितना तन्हा होगा.

हम दोनों के बीच ही बांटी जायेंगी,
ख़ामोशी का जब-जब भी हिस्सा होगा.

हर बारिश में ज़ख्म हरे हो जायेंगे,
यादों को दफ़नाने से भी क्या होगा.

उसने मेरे आँसू ये कह कर पौंछे,
आगे जो भी होगा वो अच्छा होगा.

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Monday 5 May 2014

ख़ुद की नींद से ही चाहे अंजान हूँ मैं,
लेकिन कितने ख़्वाबों की पहचान हूँ मैं.

बाहर से दिखने वाली ख़ामोशी हूँ,
भीतर से उठने वाला तूफ़ान हूँ मैं.

जाने कितनी सदियाँ मुझमें हैं ज़िन्दा,
जाने कितनी सदियों से वीरान हूँ मैं.

फ़ितरत से तो मैं फ़क़ीर ही हूँ लेकिन,
अपनी तबीयत से शाही सुल्तान हूँ मैं.

मुझको जो फ़रमान सुनाते हैं अपने,
वो क्या जाने क़ुदरत का फ़रमान हूँ मैं.

इश्क़ का इक लम्बा रस्ता हूँ मैं लेकिन,
चल कर देखो तो कितना आसान हूँ मैं.

किसी पीर का उतरा हुआ तवर्रुख हूँ.          (तवर्रुख = प्रसाद)
किसी ऋषी से मिला हुआ वरदान हूँ मैं.

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Sunday 4 May 2014

सफ़र में हमको कोई हमसफ़र मिला ही नहीं,
किसी ने अपना हमें उम्र भर कहा ही नहीं.

तमाम उम्र रहे रात के ही कब्ज़े में,
हमारी रात का सूरज कभी उगा ही नहीं.

हमारे साथ है कोई हमें लगा तो सही,
रहा है कौन  मगर साथ ये पता ही नहीं.

सुना था फाड़ के छप्पर भी खुदा देता है,
हमारे साथ ये लेकिन कभी हुआ ही नहीं.

दुआ के बदले हमें बद्दुआ मिली अक्सर,
मगर किसी से हमें कोई भी गिला ही नहीं.

उसी ने सारे सितम सह लिए जुदा होकर,
बिछुड़ के हमने कभी जैसे कुछ सहा ही नहीं.

हमारी रूह की घाटी पे गूंजती ही रही,
मगर सदा पे हमारी कोई रुका ही नहीं.

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Saturday 3 May 2014

होकर ख़ुद से तन्हा बातें करता है,
मुझमें एक परिंदा बातें करता है.

अपने भीतर की ख़ामोशी से घबरा,
मुझसे गूंगा दरिया बातें करता है.

सफ़र में मेरे फैल गये सन्नाटों से,
मैं और मेरा रस्ता बातें करता है.

सूने बंद पड़े घर की दीवारों से,
फ़ुर्सत में आईना बातें करता है.

बसर नहीं करते हैं बातें आपस में,           (बसर = घर में रहने वाले)
जिनके घर में पैसा बातें करता है.

शाम को वो  जंगल उदास हो जाता है,
दिन भर जिनसे साया बातें करता है.

क़लमा जब भी मुझे पढ़ाता है कोई,
इश्क़ का कोई मदरसा बातें करता है.

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Friday 2 May 2014

तेरे अहसास का गर रूह से रिश्ता नहीं होता,
किसी का हो भी जाता तू मगर मेरा नहीं होता.

नहीं मेरे बदन से कोई उगता पेड़ नूरानी,              (नूरानी = रोशनी वाला)
ज़मीं के गर अंधेरों में मुझे गाड़ा नहीं होता.

तुम्हारे नाम से इज़्ज़त मुझे देती है ये दुनिया,
जुड़े होते ना तुम मुझसे तो ये रूतबा नहीं होता.

यक़ीनन कुछ कमी तो रह गई है इश्क़ में मेरे,
नहीं तो बीच में अपने कोई पर्दा नहीं होता.

तेरे ही आईने का अक्श है अच्छाइयां मेरी,
बुरा होता अगरचे तू तो मैं अच्छा नहीं होता.

लड़ाई मौत से लड़ते हैं अपने हौंसले वरना,
जिगर की बात करने से जिगर पैदा नहीं होता.

सज़ाएं काट आया हूँ मैं अपनी बेगुनाही की,
हर इक इंसान में इतना बड़ा गुर्दा नहीं होता.

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Thursday 1 May 2014

आईना कब किसे सफ़ाई देता है,
उसमें ख़ुद ही अक्श दिखाई देता है.

मुझको अपने अन्दर के सन्नाटों में,
बस तेरा ही नाम सुनाई देता है.

शिकवो शिक़ायत छोड़ गले मिल जाता हूँ,
जब कोई रिश्तों की दुहाई देता है.

दरीयाओं को जो रफ़्तार अता करता, (अता करना = कृपा पूर्वक देना)
वही समंदर को गहराई देता है.

वफ़ा की राह में क़ुर्बानी लेकर मेरी,
मेरा यार मुझे रुसवाई देता है.

लगती है छोटी दुनिया की हर दौलत,
जब यक़ीन भाई को भाई देता है.

साथ में उड़ने लगता है लुटने का डर,
वो पतंग को जब ऊँचाई देता है.

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