Friday 23 May 2014

वो पढ़ रहा था मुझको, मैं उसकी क़िताब था,
उसके हर इक सवाल में मेरा जवाब था.

लुटने का मुझको नींद में अफ़सोस है यही,
छीना गया जो आँख से वो उसका ख़्वाब था.

मैं उसको हंसाता ही रहा सोच कर यही,
मैं जानता था रोना उसे बेहिसाब था.

होठों से छीनता रहा मरने की दुआएं,
जीने से मेरे दुनिया का खाना ख़राब था.

करनी पड़ी थी उसको अंधेरों से बग़ावत,
आँखों में क्योंकि उगता हुआ आफ़ताब था.     (आफ़ताब = सूरज)

मंज़िल नहीं थी कोई कहीं जानते हुए,
गुज़रा जो सफ़र साथ में वो लाजवाब था.

वो शख्स जिसकी मुट्ठियाँ ना वक़्त से खुलीं,
शायद उसी की मुट्ठियों में इन्क़लाब था.

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