Wednesday 7 May 2014

धूप में हल्की, ठंडी फुहारों जैसा हूँ,
क़ुदरत से मैं मिले इशारों जैसा हूँ.

माँ ने जब से पल्लू में बाँधा मुझको,
चंदा, सूरज और सितारों जैसा हूँ.

मेरी फ़ितरत क्या समझोगे तुम लोगों,
मैं पहाड़, मैदान पठारों जैसा हूँ.

सोच समझ कर क़दम बढ़ाता हूँ आगे,
सजी हुई डोली के कहारों जैसा हूँ.

ख्वाहिश की मैं ऊंची एक पहाड़ी पर,
दूर-दूर तक लगे चिनारों जैसा हूँ.

बदन में मेरी मंज़र पैदा होते हैं,
मैं रूहानी हसीं, नज़ारों जैसा हूँ.

ना तो बिका हूँ ना ही कभी बिक पाऊंगा,
ये ना समझना मैं भी हज़ारों जैसा हूँ.

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