Sunday 4 May 2014

सफ़र में हमको कोई हमसफ़र मिला ही नहीं,
किसी ने अपना हमें उम्र भर कहा ही नहीं.

तमाम उम्र रहे रात के ही कब्ज़े में,
हमारी रात का सूरज कभी उगा ही नहीं.

हमारे साथ है कोई हमें लगा तो सही,
रहा है कौन  मगर साथ ये पता ही नहीं.

सुना था फाड़ के छप्पर भी खुदा देता है,
हमारे साथ ये लेकिन कभी हुआ ही नहीं.

दुआ के बदले हमें बद्दुआ मिली अक्सर,
मगर किसी से हमें कोई भी गिला ही नहीं.

उसी ने सारे सितम सह लिए जुदा होकर,
बिछुड़ के हमने कभी जैसे कुछ सहा ही नहीं.

हमारी रूह की घाटी पे गूंजती ही रही,
मगर सदा पे हमारी कोई रुका ही नहीं.

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