Saturday 24 May 2014

तन्हाई को जब भी मैं, नज़दीक बुलाता हूँ,
सबसे पहले ख़ुद को ही, आवाज़ लगाता हूँ.

इन उलझी लकीरों में, लिक्खा हो कहीं तू भी,
ये सोच नज़ूमी को, मैं हाथ दिखाता हूँ.        (नज़ूमी = ज्योतिषी)

मत पूछो हवाओं तुम, दरिया के किनारों पर,
मिट्टी पे मैं ऊँगली से, क्या लिखता-मिटाता हूँ.

जब रात परेशाँ हो, मेरे किसी अपने की,
टूटी हुई नींदों में, ख़्वाबों को सजाता हूँ.

जब लौट के आते हैं, अपने हों या बेगाने,
क़दमों से उठाता हूँ, सीने से लगाता हूँ.

रो पड़ता है जब मुझमें, यादों का कोई बच्चा,
जगता हूँ भले ही मैं, पर उसको सुलाता हूँ.

दुश्मन को भी अब फ़ितरत, मालुम है ये मेरी,
वो हाथ बढ़ाते हैं, मैं हाथ मिलाता हूँ.

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