Thursday 8 May 2014

ना तो मैं हूँ, ना ही मेरी परछाई है,
मुझमें कैसी काली रात उतर आई है.

चाँद, सितारे डर कर जाने कहाँ छिप गए,
घर की छत पर मैं हूँ मेरी तन्हाई है.

सन्नाटों के ख़ाली कुए क़ैद हैं मुझमें,
बाहर चारों और मेरे अंधी खाई है.

पीछे-पीछे सच मेरा चलता है पैदल,
आगे-आगे दौड़ने वाली रुसवाई है.

बदन के अन्दर बेलिबास मेरा ज़मीर है,
बदन के बाहर पूरा शहर तमाशाई है.

ढलने को है उम्मीदों की शाम भी अब तो,
औ' कम होती जाती मेरी बीनाई है.

नापेगा कैसे कोई मेरे वजूद को,
ऊंचाई से ज्यादा मेरी गहराई है.

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