Monday 30 June 2014

जनाज़ा किसी का उठा ही नहीं है,
मरा कौन मुझमें पता ही नहीं है.

मुझे को दिया और लगा उसको ऐसा,
कि जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं है.

ये कैसी इबादत ये कैसी नमाज़ें,
ज़ुबां पर किसी के दुआ ही नहीं है.

चले जिस्म से रूह तक तो लगा ये,
बिछुड़ वो गया जो मिला ही नहीं है.

यूँ कहने को हम घर से चल तो दिए हैं,
मगर जिस तरफ़ रास्ता ही नहीं है.

ख़ताओं की वो भी सज़ा दे रहे हैं,
गुनाहों के जिनकी सज़ा ही नहीं है.

पसीने से मैं अपने वो लिख रहा हूँ,
जो क़िस्मत में मेरे लिखा ही नहीं है.

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Sunday 29 June 2014

दूर खड़े होकर लम्हा रुसवाई का,
मंज़र देख रहा मेरी तन्हाई का.

तू है समंदर मान लिया अब चुप हो जा,
पता पूछ मत तू मेरी गहराई का.

बदन मेरा ख़ुद पर शर्मिंदा हुआ बहुत,
चेहरा मैंने जब देखा परछाई का.

क़तरा-क़तरा निचुड़ा फूल तो इत्र बना,
हश्र यही होता है हर अच्छाई का.

मुझमें रहने से डरते हैं लोग सभी,
जैसे मैं इक घर हूँ किसी कसाई का.

तू खयाम की अगर रुबाई बन जाए,
छंद बनूँ मैं तुलसी की चौपाई का.

दाद मुझे दी खुलकर मेरी ग़ज़लों ने,
जब भी शेर कहा मैंने सच्चाई का.

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Saturday 28 June 2014

Surendra Chaturvedi Ghazal-Go On DD Rajasthan TV

All India Mushaira

बस इक मैं ही यहाँ से रोज़ गुज़रता हूँ,
ये बतला कि किसके घर का रस्ता हूँ.

कई दिनों से आग नहीं छूती मुझको,
जाने किस मुफ़लिस के घर का चूल्हा हूँ.

ख्वाहिशें मुझमें रोज़ ख़ुदकुशी करती हैं,
उनके लिए जैसे फांसी का फंदा हूँ.

प्यास बुझाओ और किसी दरिया पे जा,
मैं तो कपड़े धोने वाला कूआ हूँ.

रिश्तों के मेले में घूम रहा लेकिन,
कल भी तन्हा था मैं, आज भी तन्हा हूँ.

सुना है तन्हाई में दुनिया रोती है,
मैं हूँ कलंदर, तन्हाई में हँसता हूँ.

मुझे देख कर छुप जाते हैं आईने,
जाने मैं भी किस पत्थर का चेहरा हूँ.

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Friday 27 June 2014

ये तेरी चाहतों का सदक़ा है,    (सदक़ा = वार कर दिया दान)
ज़ख़्म मुर्दा हैं, दर्द ज़िन्दा है.

इक इबादत है इश्क़ मेरे लिए,
इश्क़ तेरे लिए तज़ुर्बा है.

मैं दुआओं में सबके हूँ शामिल,
मेरे जीने का ये नज़रिया है.

तुझको सोचूं, तुझी को याद करूँ,
ये भी तन्हाइयों का सजदा है.

ये मिला है हमें जुदा होकर,
मैं भी रुसवा हूँ, तू भी रुसवा है.     (रुसवा = बदनाम)

बड़ी नज़दीकियों से अपनों को,
तूने देखा है, मैंने देखा है.

तू है मौजूद गर ख़ुदा की तरह,
बीच में कौनसा ये पर्दा है.

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देख रहा है लिख कर मुझको,
देख कभी तो पढ़ कर मुझको.

आँखें मीचे बैठा हूँ मैं,
देख रहा है मंज़र मुझको.

बुतपरस्त इक शख्स आजकल,
बना रहा है पत्थर मुझको.

फूल मुसीबत में है शायद,
समझ रहे हैं नश्तर मुझको.

जो अमीर होता है पाकर,
खो देता है अक्सर मुझको.

अब  की बार नज़ूमी बन कर,    (नज़ूमी = ज्योतिषी)
पढ़ने लगा मुक़द्दर मुझको.

तेरे लिए हुआ हूँ बेघर,
ले चल अब अपने घर मुझको.

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Monday 23 June 2014

जब वो मेरी हर उड़ान को भूल गया,
मैं भी उसके आसमान को भूल गया

सूरज होकर भटक रहा अंधियारों में,
क्या तू अपने ख़ानदान को भूल गया.

ख़ुदा को हाज़िर नाज़िर कर के आख़िर दम,
चश्मदीद अपने बयान को भूल गया.

जिसके नीचे रह कर सारी उम्र कटी,
साया उस ही सायबान को भूल गया.     (सायबान = छाया देने वाला)

डूब गया उसका ज़मीर सैलाबों में,
पानी ख़तरे के निशान को भूल गया.

उसके रिश्ते बिकते रहे बज़ारों में,
गिरवी रख कर जो ज़ुबान को भूल गया.

ऐन वक़्त पर जिसने खुलकर साथ दिया,
वही सफ़ीना बादबान को भूल गया.   (सफ़ीना = जहाज) (बादबान = मस्तूल)

तुमको थका हुआ जब देखा रस्ते में,
मैं अपनी लम्बी थकान को भूल गया.

मुद्दत पहले घर से निकल गया था मैं,
लौटा तो अपने मकान को भूल गया.

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Sunday 22 June 2014

हमने उससे उसका मुक़द्दर मांग लिया,
प्यास ने अबकी बार समंदर मांग लिया.

उसके ज़ेहन में शायद कोई घर होगा,
उसने मुझसे नींव का पत्थर मांग लिया.

मुझमें  सूना आसमान था जिसके लिए,
उड़ने वाला एक कबूतर मांग लिया.

नींद ना आई फूलों की जब सेज़ों पर,
यादों ने काँटों का बिस्तर मांग लिया.

पाँव का नश्तर, नश्तर से ही निकलेगा,
सोच के उसने किसी से नश्तर मांग लिया.

मौसम ने जब दिल के सहरा को छुआ,
रेत ने बारिश वाला मंज़र मांग लिया.

क़ुर्बानी की उसे नसीहत दी मैंने,
काट के उसने मेरा ही सर मांग लिया.

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Friday 20 June 2014

हौंसलों की उड़ान मांगे है,
वक़्त अब इम्तिहान मांगे है.

याद आई है मुझमें रहने को,
इक पुराना मकान मांगे है.

उसने अपनी ज़ुबान कटवा ली,
अब वो मेरी ज़ुबान मांगे है.

उसने ख़ामोशियाँ तो सुन लीं हैं,
आँसुओं के बयान मांगे है.

ये ज़मीं हिल रही है अन्दर से,
ये ज़मीं आसमान मांगे है.

अब तो देकर दुहाई इज़्ज़त की,
सर मेरा ख़ानदान मांगे है.

दर्द मैं भूलना भी चाहूँ तो,
ज़ख्म अपने निशान मांगे है.

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Thursday 19 June 2014

सबके ख़्वाबों को आसरा देकर,
यूँ इबादत भी की दुआ देकर.

बेख़ता हूँ ये मैंने जान लिया,
जब वो रोया मुझे सज़ा देकर.

उसकी नींदों में जागता मैं रहा,
कौन रहता है ख़ुश दगा देकर.

एक लम्हा कि जिस से मिलना था,
लापता हो गया पता देकर.

उसको जाना था वो चला ही गया,
इक बहाना मुझे नया देकर.

रह गए हम ही रास्ते में खड़े,
और लोगों को रास्ता देकर.

छीन कर ले गया सुकूं मेरा,
वो नशे की मुझे दवा देकर.

मेरी और ग़ज़लों के लिए देखें मेरा ब्लॉग,
ghazalsurendra.blogspot.in

Tuesday 17 June 2014

यूँ तो रिश्ता मेरा सभी से था,
मेरा होना मगर उसी से था.

घर था रोशन कहाँ चरागों से,
वो तो अन्दर की रौशनी से था.

ये है सच मेरी उम्र का हांसिल,
उसके होठों की बस हँसी से था.

आख़िरी सांस तक नहीं समझा,
मैं परेशान ज़िन्दगी से था.

कौन ये  जानता कि मेरा सफ़र,
दोनों आलम की बेख़ुदी से था.

कौन जुड़ता मेरी फ़क़ीरी से,
मेरा मक़सद कहाँ किसी से था.

सांस लेता रहा हवाओं से,
ज़िन्दा लेकिन मैं शायरी से था.

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Monday 16 June 2014

बीच हमारे क्यों ये तेरा-मेरा है,
बता बदन में कौनसा हिस्सा मेरा है.

दूर हुआ तू तब ये पता लगा मुझको,
तू मुझमें है तो ये रुतबा मेरा है.

यादों को कह दो कि यहाँ नहीं आये,
तन्हाई का हर इक लम्हा मेरा है.

ख़ुदा का दर्ज़ा दे कर यही तसल्ली है,
नज़र में तेरी यार का दर्ज़ा मेरा है.

बदन इमारत जैसी है तो बता मुझे,
इसमें आख़िर कौनसा कमरा मेरा है.

कह तो रहा है इसे आशियाँ तू अपना,
इसमें लेकिन तिनका-तिनका मेरा है.

इसे इबादत ना माने तेरी मर्ज़ी,
लेकिन तेरे दर पे सजदा मेरा है.

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Sunday 15 June 2014

दिल को अपने बेक़रार अब कौन करे,
इश्क़-मुश्क़ और प्यार-व्यार अब कौन करे.

सारी दुनिया को तो पागल कहता है,
इस पागल पर ऐतबार अब कौन करे.

सहराओं ने रखी है जिससे उम्मीदें,
उस बादल का इंतज़ार अब कौन करे.

बेच के गैरत नाज़ है जिसको अपने पर,
उसको जाकर शर्मसार अब कौन करे.

उसके दामन के धब्बों को धोते हुए,
अपना दामन दागदार अब कौन करे.

जिस पंछी ने सैय्यादों की सोहबत की,
उसको अपनों में शुमार अब कौन करे.

नादां हो तो उसे हिदायत दी जाए,
होशियार को होशियार अब कौन करे.

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Friday 13 June 2014

था ढाल कौन औ" मेरी तलवार कौन था,
पूरे शहर में मेरा बता यार कौन था.

हम जिस्मों-जाँ से एक थे तो क्यूँ ना मिल सके,
आख़िर हमारे बीच की दीवार कौन था.

वारिस सभी थे मेरी वसीयत के अ-ख़ुदा,
लेकिन बता कि मेरा तलबगार कौन था.

जन्नत के लिए लोग खड़े थे क़तार में,
मिलने के लिए मौत से तय्यार कौन था.

खैरात बन के रिश्तों में तक़सीम हो गया,     (तक़सीम = बंट जाना)
मुझको नहीं पता मेरा हक़दार कौन था.

गंगा कभी ली हाथ में, क़ुरआन ली कभी,
सब पारसा ही थे तो गुनहगार कौन था.        (पारसा = पवित्र)

तू गर नहीं था मुझमें तो फिर ये बता मुझे,
मुझमें तेरी ही शक्ल का किरदार कौन था.

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Thursday 12 June 2014

बिछुड़ के हमसे तुम्हें भी ख़ुशी नहीं होगी,
बिना हमारे बसर ज़िन्दगी नहीं होगी.

उजाले तुमसे नज़र भी नहीं मिलायेंगे,
छतों पे घर के कभी चाँदनी नहीं होगी.

नदी के सामने प्यासा रहूँ नहीं मुमकिन,
जहाँ मैं प्यासा रहूँगा नदी नहीं होगी.

ख़ुशी के लम्हे तुम्हारे क़दम तो चूमेंगे,
तुम्हारे चेहरे पे लेकिन हँसी नहीं होगी.

हज़ारों बातें ज़माना करेगा ऐसी भी,
किसी से हमने नहीं बात जो कही होगी.

तुम्हारे साँसे भी ख़ुद में हमें तलाशेंगी,
भले ही कह दो कि कोई कमी नहीं होगी.

हमारा नाम तो लिखने का मन करेगा मगर,
क़लम के स्याही में बाकी नमी नहीं होगी.

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Wednesday 11 June 2014

सारे दर्द उठा के रख लूँ,
ख़ुद में तुझे छिपा के रख लूँ.

ख़िदमत से मिलती है दुआएं,
मैं ये दौलत कमा के रख लूँ.

कभी तो थक के लौटेगा तू,
आ कुछ सांसे बचा के रख लूँ.

कड़ी  धूप में काम आयेंगे,
ख़्वाब सुहाने सजा के रख लूँ.

तुझे दिखाने होंगे इक दिन,
साथ में मोती वफ़ा के रख लूँ.

गर तेरी ख्वाहिश बन जाऊं,
मैं हर ख्वाहिश दबा के रख लूँ.

देख के तुझको जी करता है,
तुझको तुझसे चुरा के रख लूँ.


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Tuesday 10 June 2014

ख़ालीपन का कहीं ना डस ले डर मुझको,
इसी फ़िक्र में ढूंढ रहा है घर मुझको.

नींद के पीछे अक्सर दौड़ा करता हूँ,
दूर से देखा करता है बिस्तर मुझको.

झूठ के हाथों में तलवारें चमक रहीं,
कटवाना ही होगा अब तो सर मुझको.

गिरा रहा है चाहे कोई बाहर से,
थाम रहा है मगर कोई अन्दर मुझको.

जो पड़ौस की छत से आया करतीं हैं,
उन ईंटों ने बना दिया पत्थर मुझको.

लहू बेचकर जिसकी प्यास बुझाई थी,
ढूंढ रहा है उसका ही ख़ंजर मुझको.

पर फैला कर मुझमें बैठा है पंछी,
बुला रहा है कोई तो अम्बर मुझको.

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Monday 9 June 2014

सबके लिए दुआ करते थे,
कैसे लोग हुआ करते थे.

इसके-उसके दिल में क्या है,
सब कुछ जान लिया करते थे.

जान चली भी जाए लेकिन,
सच्ची बात कहा करते थे.

किसी जान के बदले में वे,
अपनी जान दिया करते थे.

धोखे मिलते थे रिश्तों में,
फिर भी लोग वफ़ा करते थे.

जुबां पे ख़ामोशी रहती  थे,
दिल में बात रखा करते थे.

घर को ख़ुश रखने के ख़ातिर,
सारे दर्द सहा करते थे.

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Sunday 8 June 2014

किसी भी मोड़ पर मिल जाएँ ये सोचा भी करते हैं,
कभी बाहर, कभी भीतर तुझे ढूँढा भी करते हैं.

नहीं देखेंगे तेरा अब कभी चेहरा ये कहकर भी,
तुझे हम दूर तक जाते हुए देखा भी करते हैं.

अलग होने से अब तक कोई भी मंज़र नहीं बदला,
अभी भी याद करके हम तुझे रोया भी करते हैं.

तुम्हारे जानने वालों के नखरों को उठाकर हम,
नहीं जैसा किया था अब तलक वैसा भी करते हैं.

तुम्हारी ही क़सम अब तक बची महफ़ूज़ है वरना,
क़सम खाया भी करते हैं क़सम तोड़ा भी करते हैं.

वो ख़त जिनको कभी तुमने मसल कर फाड़ डाला था,
उन्हें आपस में फिर से आजकल जोड़ा भी करते हैं.

बिताए साथ जो लम्हे क़सम उनकी तुम्हें जानम,
सुलह जिसमें ना हो ऐसा कभी झगड़ा भी करते हैं.

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ज़मीं पे ला के अम्बर रख दूँ,
तुझमें एक समंदर रख दूँ.

बन जाऊं मैं अगर परिंदा,
जहाँ भी चाहूँ मैं घर रख दूँ.

रोना है जी भर कर मुझको,
कंधे पर तेरे सर रख दूँ.

तुझे तसल्ली मिल जाए तो,
मैं सीने पर पत्थर रख दूँ.

आंधी से तू अगर बचा ले,
कच्चे घर पर छप्पर रख दूँ.

गर मेरी उड़ान पर शक़ है,
काट के मैं अपने पर रख दूँ.

सफ़र में तू भी साथ चले तो,
छिपा के मैं सारे डर रख दूँ.


Friday 6 June 2014

भरा हुआ बादल हूँ मैं,
लेकिन कुछ पागल हूँ मैं.

अंधे मुझको लगा रहे,
ये कैसा काजल हूँ मैं.

खुले हुए दरवाज़े की,
जैसे इक साँकल हूँ मै.

कौन पूछने आएगा,
कटा हुआ पीपल हूँ मैं,

बोतल में ही क़ैद रहा,
लेकिन गंगाजल हूँ मैं.

मुझको तुम क्या ओढ़ोगे,
क़ैदी का कम्बल हूँ मैं.

मैं पैबंद हूँ बोरी का,
वर्ना तो मखमल हूँ मैं.

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Thursday 5 June 2014

मेरी आँखों में सहराओं का मंज़र सो रहा है,
मगर भीतर कहीं मेरे समंदर सो रहा है.

वही है ये कि जिसने सारी दुनिया जीत ली थी,
खुली है मुट्ठियाँ देखो सिकंदर सो रहा है.

यहाँ पर बेगुनाहों को नहीं आती हैं नींदे,
सितम करके यहाँ लेकिन सितमगर सो रहा है.

है बच्चा गोद में माँ की तो मुझको लग रहा ये,
ज़मीं की गोद में जैसे कि अम्बर सो रहा है.

नहीं सुल्तान चाहे सो सका फूलों के ऊपर,
मगर काटों के बिस्तर पर क़लन्दर सो रहा है.

अभी जागेगा सारे ग़म करेगा दूर तेरे,
अभी कुछ देर को शायद पयम्बर सो रहा है.     (पयम्बर = ईश्वर का अवतार)

बड़ी मुद्दत से मैं नींदों में जिसकी जागता हूँ,
कोई तो शख्स है जो मेरे अन्दर सो रहा है.

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Wednesday 4 June 2014

इक गणित की क़िताब जैसा है,
तेरा रिश्ता हिसाब जैसा है.

तुझसे जुड़ना है नींद के जैसा,
टूटना भी तो ख़्वाब जैसा है.

होक मदहोश झूमने के लिए,
तेरा होना शराब जैसा है.

कितना इतरा रहा है अपने पर,
दर्द चढ़ते शबाब जैसा है.

उसके आगे मैं इक अँधेरा हूँ,
और वो आफ़ताब जैसा है.     (आफ़ताब = सूरज)

मेरा अंदाज़ और मेरा लहज़ा,
तेरे ख़त के जवाब जैसा है.

लोग कहते हैं मेरी ग़ज़लों में,
कोई पौधा गुलाब जैसा है.

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जब जिसने तेरा अफ़साना सुना दिया,
सज़दे में मैंने अपना सर झुका दिया.

आसमान के  गिर जाने का डर था उसे,
उसने घर की छत से पंछी उड़ा दिया.

हवा ना साया, फूल ना खुशबु फल देगा,
आँगन में ये कैसा पौधा उगा दिया.

मैंने उसकी ज़ीश्त के पन्ने जब खोले,       (ज़ीश्त = ज़िन्दगी)
उसने मेरी मौत का मुद्दा उठा दिया.

ख़ुद्दारी में तेरा सर तो झुका नहीं,
भीड़ ने उसको देख मसीहा बना दिया.

फिर से मेरा नाम वो लिखना सीख रहा,
जिसका मैंने नाम कभी का मिटा दिया.

जिसके घर पर ग़ज़लों पर पाबन्दी थी,
उसको भी इक शेर तो मैंने सुना दिया.

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Monday 2 June 2014

जिस्म जुदा हो जाए तो होता है क्या,
रूह से जुड़कर रिश्तों को सोचा है क्या.

मेरे अश्क़ पौंछने तो तुम आए हो,
बहते दरिया को तुमने रोका है क्या.

ना फटती, ना मैली होती, ना धुलती,
तुमने ऐसी चादर को ओढ़ा है क्या.

तुझमें मेरा होना भी अब पूछे है,
तेरे मेरे बीच कोई पर्दा है क्या.

मेरी आँखों में भी आँखें डाल ज़रा,
हाथों से आँखें ढक कर रोता है क्या.

मांझी के अंधे यक़ीन ने तुझको भी,
बीच भंवर में ले जाकर छोड़ा है क्या.

मेरे हर इक शेर पे आँहें भरता है,
मेरी ग़ज़लों से तेरा रिश्ता है क्या.

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