Saturday 28 June 2014

बस इक मैं ही यहाँ से रोज़ गुज़रता हूँ,
ये बतला कि किसके घर का रस्ता हूँ.

कई दिनों से आग नहीं छूती मुझको,
जाने किस मुफ़लिस के घर का चूल्हा हूँ.

ख्वाहिशें मुझमें रोज़ ख़ुदकुशी करती हैं,
उनके लिए जैसे फांसी का फंदा हूँ.

प्यास बुझाओ और किसी दरिया पे जा,
मैं तो कपड़े धोने वाला कूआ हूँ.

रिश्तों के मेले में घूम रहा लेकिन,
कल भी तन्हा था मैं, आज भी तन्हा हूँ.

सुना है तन्हाई में दुनिया रोती है,
मैं हूँ कलंदर, तन्हाई में हँसता हूँ.

मुझे देख कर छुप जाते हैं आईने,
जाने मैं भी किस पत्थर का चेहरा हूँ.

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