Friday 27 June 2014

देख रहा है लिख कर मुझको,
देख कभी तो पढ़ कर मुझको.

आँखें मीचे बैठा हूँ मैं,
देख रहा है मंज़र मुझको.

बुतपरस्त इक शख्स आजकल,
बना रहा है पत्थर मुझको.

फूल मुसीबत में है शायद,
समझ रहे हैं नश्तर मुझको.

जो अमीर होता है पाकर,
खो देता है अक्सर मुझको.

अब  की बार नज़ूमी बन कर,    (नज़ूमी = ज्योतिषी)
पढ़ने लगा मुक़द्दर मुझको.

तेरे लिए हुआ हूँ बेघर,
ले चल अब अपने घर मुझको.

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