Sunday 29 June 2014

दूर खड़े होकर लम्हा रुसवाई का,
मंज़र देख रहा मेरी तन्हाई का.

तू है समंदर मान लिया अब चुप हो जा,
पता पूछ मत तू मेरी गहराई का.

बदन मेरा ख़ुद पर शर्मिंदा हुआ बहुत,
चेहरा मैंने जब देखा परछाई का.

क़तरा-क़तरा निचुड़ा फूल तो इत्र बना,
हश्र यही होता है हर अच्छाई का.

मुझमें रहने से डरते हैं लोग सभी,
जैसे मैं इक घर हूँ किसी कसाई का.

तू खयाम की अगर रुबाई बन जाए,
छंद बनूँ मैं तुलसी की चौपाई का.

दाद मुझे दी खुलकर मेरी ग़ज़लों ने,
जब भी शेर कहा मैंने सच्चाई का.

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

No comments:

Post a Comment