Monday 30 June 2014

जनाज़ा किसी का उठा ही नहीं है,
मरा कौन मुझमें पता ही नहीं है.

मुझे को दिया और लगा उसको ऐसा,
कि जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं है.

ये कैसी इबादत ये कैसी नमाज़ें,
ज़ुबां पर किसी के दुआ ही नहीं है.

चले जिस्म से रूह तक तो लगा ये,
बिछुड़ वो गया जो मिला ही नहीं है.

यूँ कहने को हम घर से चल तो दिए हैं,
मगर जिस तरफ़ रास्ता ही नहीं है.

ख़ताओं की वो भी सज़ा दे रहे हैं,
गुनाहों के जिनकी सज़ा ही नहीं है.

पसीने से मैं अपने वो लिख रहा हूँ,
जो क़िस्मत में मेरे लिखा ही नहीं है.

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