Thursday 19 June 2014

सबके ख़्वाबों को आसरा देकर,
यूँ इबादत भी की दुआ देकर.

बेख़ता हूँ ये मैंने जान लिया,
जब वो रोया मुझे सज़ा देकर.

उसकी नींदों में जागता मैं रहा,
कौन रहता है ख़ुश दगा देकर.

एक लम्हा कि जिस से मिलना था,
लापता हो गया पता देकर.

उसको जाना था वो चला ही गया,
इक बहाना मुझे नया देकर.

रह गए हम ही रास्ते में खड़े,
और लोगों को रास्ता देकर.

छीन कर ले गया सुकूं मेरा,
वो नशे की मुझे दवा देकर.

मेरी और ग़ज़लों के लिए देखें मेरा ब्लॉग,
ghazalsurendra.blogspot.in

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