Tuesday 10 June 2014

ख़ालीपन का कहीं ना डस ले डर मुझको,
इसी फ़िक्र में ढूंढ रहा है घर मुझको.

नींद के पीछे अक्सर दौड़ा करता हूँ,
दूर से देखा करता है बिस्तर मुझको.

झूठ के हाथों में तलवारें चमक रहीं,
कटवाना ही होगा अब तो सर मुझको.

गिरा रहा है चाहे कोई बाहर से,
थाम रहा है मगर कोई अन्दर मुझको.

जो पड़ौस की छत से आया करतीं हैं,
उन ईंटों ने बना दिया पत्थर मुझको.

लहू बेचकर जिसकी प्यास बुझाई थी,
ढूंढ रहा है उसका ही ख़ंजर मुझको.

पर फैला कर मुझमें बैठा है पंछी,
बुला रहा है कोई तो अम्बर मुझको.

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