Thursday 31 July 2014

दूर-दूर तक दिन की धूप में जलता सहरा देखा था,
सुबह-सुबह ना जाने हमने किसका चेहरा देखा था.

माँ की आँख में होंगे आँसू कब उसने सोचा था ये,
जिस बच्चे ने ख़्वाब में अपने बहता दरिया देखा था.

सोने जैसी धूप में धोका इन आँखों ने यूँ खाया,
जंगल में सीता ने जैसे हिरण सुनहरा देखा था.

पढ़ना उदासी सीख के जब हम पहुंचे शहर की सड़कों पे,
भीड़ में शामिल हर चेहरे को हमने तन्हा देखा था.

सुबह-सुबह वो घर की छत से उतर के आया हौले से,
सारी रात जाग के हमने जिसका रस्ता देखा था.

जिसमें पढ़ती थीं कितनी ही रंग-बिरंगी उम्मीदें,
हमने अपने गाँव का वो ही बंद मदरसा देखा था.

धूप-चांदनी एक साथ थी चारों तरफ़ अँधेरे में,
अपने भीतर क्या बतलाऊं कैसा जलवा देखा था.

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Wednesday 23 July 2014

गया जिसके लिए रुख़ मोड़ कर सारे ज़माने से,
मैं वापस लौट आया हूँ उसी के आस्ताने से.

तमन्ना है कि मिलने का रहे ये सिलसिला जारी,
कभी सच्चे बहाने से, कभी झूंठे बहाने से.

अगर मुझसे कोई रिश्ता नहीं बाक़ी बचा उसका,
बता ख़ुशबू भी आती है क्यूँ उसके आशियाने से.

नहीं मिट पाउँगा उससे ये तूफ़ा जानता भी था,
मगर उसको  तो मतलब था मुझे ही आज़माने से.

कभी टूटे भी गरचे हम बिना आवाज़ के टूटें,
कि दुनिया बाज़ आए बेतुकी बातें बनाने से.

नहीं जब तू कहीं मौजूद मुझमें ही रहा तो फिर,
मुझे लेना भी क्या है ये बता अब इस ज़माने से.

परिंदे प्यार के आयें अगर हम में कहीं रहने,
इन्हें मत रोकना अपने दिलों में घर बनाने से.

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Tuesday 22 July 2014

ये किस मोड़ पर ले आये हालात मुझे,
लोग दुआ देते हैं या खैरात मुझे.

इनके हैं अहसान कई मेरे सिर पर ,
कितने सबक़ सिखाते हैं सदमात मुझे .

ख़ुद से बातें करना अजब तजुर्बा है,
लगती है हर बात नई सी बात मुझे .

पेड समझ कर बाहों में ले लेती है,
जब जंगल में मिलती है बरसात मुझे .

ज़ख्म गुलाबी होकर ख़ुशबू देते हैं,
दर्द थमा जाते हैं जब नग्मात मुझे.

यादों का मैं गुनहगार हो जाता हूँ,
कम लगने लगते हैं जब दिन -रात मुझे .

छुडा गये तुम हाथ मगर देखो अब तक,
होते हैं महसूस हाथ में हाथ मुझे .

था घर अपना सर बस छुपाने के क़ाबिल,
कहाँ घर था उनको बुलाने के क़ाबिल .

उन्हें तो हुनर आ गया दिल्लगी का,
हमीं ना हुए दिल लगाने के क़ाबिल .

झुका हम ही देते ये सर करके सजदा ,
मिला दर जो होता झुकाने के क़ाबिल.

लिखे नाम उसने थे जिन काग़ज़ो पर,
हमीं हर्फ़ थे बस मिटाने के क़ाबिल.

कभी लौट कर वो ना आया दुबारा ,
हुआ जब से खाने -कमाने के क़ाबिल.

शजर पर थे पंछी हजारों ही हमसे ,
हमीं थे मगर बस निशाने के क़ाबिल .

ज़माना हुआ ना तो क़ाबिल हमारे ,
ना हम हुए इस ज़माने के क़ाबिल .

कड़ी धूप और लम्बे सफ़र में पेड़ का साया होते हैं,
सहराओं में रहने वाले लोग मसीहा होते हैं.

सूरज को उगने से पहले मर जाते हैं नींदों में,
वो के वो ही ख़्वाब रात में फिर से ज़िन्दा होते हैं.

चट्टानों की मज़बूती तो सिर्फ़ दिखावे जैसी थी,
टूट के बिखरे तब ये जाना लोग आईना होते हैं.

बुरे वक़्त में खुल जाते हैं जो भीतर और बाहर से,
सच पूछो माँ-बाप ही जन्नत का दरवाज़ा होते हैं.

सहराओं की प्यास बुझाने कहाँ समंदर आता है,
ये तो दरिया ही हैं जो फ़ितरत से फ़रिश्ता होते हैं.

तन्हाई जागीर में हमको दी है मगर  अ-सुल्तानों,
क्या बतलायें तन्हाई में हम भी क्या-क्या होते हैं.

वही मेरी ग़ज़लों में सांसे लेने लगते हैं आकर,
सूखे ज़ख्मों की ज़मीन पे दर्द जो पैदा होते हैं.

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Friday 18 July 2014

मुफ़लिस और मज़दूरों की जागीर हूँ मैं,
जाने कितने लोगो की तक़दीर हूँ मैं.

यारी हो तो सर भी कटाने को हाज़िर,
अगर दुश्मनी हो तो इक शमशीर हूँ मैं.    (शमशीर = तलवार)

यूँ तो हवाओं के क़दमों का घुंघरू हूँ,
तूफ़ानों के पांवों की जंज़ीर हूँ मैं.

कितने ही लोगों की टेढ़ी नज़रें हैं,
कभी-कभी तो लगता है कश्मीर हूँ मैं.

वक़्त ने कितने ही रंगों से रंगा मुझे,
आने वाले कल की इक तस्वीर हूँ मैं.

कल मुझको ख़ुद वक़्त शौक़ से पढ़ता था,
आज भले ही मिटी हुई तहरीर हूँ मैं.    (तहरीर = लिखावट)

दिल मेरी ग़ज़लों को सुन कर बोल उठा,
करवट लेते नए दौर का मीर हूँ मैं.    (मीर = एक शायर का नाम)

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Thursday 17 July 2014

सुखी रेत पे ज़िन्दा मछली होती है,
सुख-दुःख की जब अदला-बदली होती है.

अपनी इज़्ज़त  रही उम्र भर ऐसे ही,
ज्यों यतीमखाने में लड़की होती है.

यही सोच के हवा को रोका नहीं कभी,
उजड़े घर में टूटी खिड़की होती है.

समझ गए थे कच्चे घर के छप्पर भी,
भरे हुए बादल में बिजली होती है.

ज़ख़्मी थे अहसास कि जैसे बच्चे की,
फंसी हुई पहिये में उंगली  होती है.

इसी ग़लतफ़हमी में धोका खा बैठे,
रोने की आवाज़ तो असली होती है.

उस बेटी का ख़ुदा मुहाफ़िज़ होता है,    (मुहाफ़िज़ = रक्षक)
जो बेटी माँ-बाप की लकड़ी होती है.

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Wednesday 16 July 2014

ये मुमकिन है बहुत महंगा मिलेगा,
भलाई का सिला अच्छा मिलेगा.

यकीं भी कर रहा हूँ तो ये डर है,
मुझे इस बार भी धोका मिलेगा.

है घर ऊंचा मगर मैं सोचता हूँ,
वहां पे आदमी कैसा मिलेगा.

मुझे तुम रास्ता तो कह रहे हो,
अँधेरे का सफ़र लंबा मिलेगा.

मुझे खोकर तुम्हारा क्या गया था,
मुझे पाकर भी तुमको क्या मिलेगा.

इल्तज़ा है की तुम मुझमें ना झांको,
कोई बच्चा तुम्हें रोता मिलेगा.

तसव्वुर में फ़क़ीरों के रहा हूँ,
मेरे घर का कहाँ नक्शा मिलेगा.

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Tuesday 15 July 2014

देखने को दम कितना, दुश्मनों की ताक़त में,
पेश आ रहे हैं हम अब तलक शराफ़त में.

पढ़ते हो उदास चेहरे, चुप्पियों को सुनते हो,
सुनके ये चले आये, आपकी अदालत में.

नीयतों की नींव पे खड़ी, अज्म और ज़मीर से बनी,    (अज्म = आत्म-सम्मान)
अमनो-चैन रहता है, दिल की इस इमारत में.

जुगनुओं के कुनबों में, ऐसे भी कई होंगे,
तीरगी में ग़ुम हो गए, रौशनी की चाहत में.    (तीरगी = अँधेरा)

मंदिरों में क्या जाते, मस्ज़िदों में क्या करते,
उम्र  काट ली हमने, इश्क़ की इबादत में.

वो दीये क्या आयेंगे, आँधियों की ज़द में कभी,
जो रहे हवाओं की, हर घड़ी हिफ़ाज़त में.

फ़ितरतें फ़कीराना, आदतें अमीराना,
हम रहे हैं ख़ुद की ही, उम्र भर निज़ामत में.

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Sunday 13 July 2014

बदन में रहते हुए मेरा घर अकेला है,
मैं इक ख़याल हूँ मेरा सफ़र अकेला है.

न जाने कितने हीं मौसम ठहर के चलते बने,
परिंदा आज भी उस पेड़ पर अकेला है.

कई हैं आपके सज़दे में सर झुकाने को,
हज़ूर लेकिन कटाने को सर अकेला है.

नज़र में दूर तलक याद का ही है जंगल,
यहाँ पे मुझसा मगर हर शजर अकेला है.

कहाँ से ढूंढ के लाओगे इसके जैसा तुम,
हज़ार सदमे हैं लेकिन जिगर अकेला है.

यही मैं सोच के उसके गली में जाता हूँ,
मुझे भी देगा सदा वो अगर अकेला है.

ज़रा सा गौर करो और उसको फिर देखो,
ज़माना साथ सही वो मगर अकेला है.

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Friday 11 July 2014

मौसम से हम जब भी गुज़ारिश करते हैं,
अब्र मेहरबां होकर बारिश करते हैं.    (अब्र = बादल)

जब भी नज़ूमी क़िस्मत पढ़ते हैं मेरी,    (नज़ूमी = ज्योतिषी)
चाँद-सितारे मेरी सिफ़ारिश करते हैं.

बदन किसी के नाम मुक़र्रर है अपना,
बाज़ारों में नहीं नुमाईश करते हैं.

नहीं बुझा पायेंगे ये कह दो इसे,
मिलके हवाओं से जो साज़िश करते हैं.

हम ज़मीन से ही रखते हैं हर  रिश्ता,
आसमान की हम कब ख्वाहिश करते हैं.

लाख दरिया सामने औ" हम प्यासे हों,
क़तरे तक की कब फ़रमाईश करते हैं.

क़दमों में बिछ जाते हैं कालीनों से,
जब  बुज़ुर्ग हमसे समझाईश करते  हैं.

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Thursday 10 July 2014

कौन समझाए उन्हें इतनी जलन ठीक नहीं,
जो ये कहते हैं मेरा चाल-चलन ठीक नहीं.

झूँठ को सच में बदलना भी हुनर है लेकिन,
अपने ऐबों को छुपाने का ये फन ठीक नहीं.

उनकी नीयत में ख़लल है तो घर से ना निकलें,
तेज़ बारिश में ये मिट्टी का बदन ठीक नहीं.

शौक़ से छोड़ के जाएँ ये चमन वो पंछी,
जिनको लगता है कि ये अपना वतन ठीक नहीं.

हर गली चुप सी रहे, और रहें सन्नाटे,
मेरे इस मुल्क में ऐसा भी अमन ठीक नहीं.

जो लिबासों को बदलने का शौक़ रखते थे,
आखरी वक़्त ना कह पाए क़फ़न ठीक नहीं.

वक़्त आने पे हुआ कम भला लगता है,
हुश्न जब सामने आ जाए भजन ठीक नहीं.

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Wednesday 9 July 2014

कहाँ चेहरा मेरा बिखरा हुआ था,
मेरा तो आईना टूटा हुआ था.

मेरी  प्यासी निग़ाहों के ही अन्दर,
समंदर दूर तक फैला हुआ था.

कहीं उसमें उदासी रो रही थी,
मगर दामन मेरा भीगा हुआ था.
नशेमन था मेरा उस पेड़ पर ही,
जहाँ पर सांप भी बैठा हुआ था.

सिसकता दर्द ये जुड़वां है मेरा,
मेरे ही साथ मैं पैदा हुआ था.

जड़ें बेजान, पानी में खड़ी थीं,
शजर मुझमें कोई सूखा हुआ था.

वही लिपटा था क्यूँ मेरे क़फ़न में,
जिसे बिछुड़े हुए अर्सा हुआ था.

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Tuesday 8 July 2014

ढह गया वो घर जिसे पुख्ता समझ बैठे थे हम,
किस यक़ी पर आपको अपना समझ बैठे थे हम.

दूसरी दुनिया कहीं पर है  कभी सोचा न था,
आपकी दुनिया को ही दुनिया समझ बैठे थे हम.

साथ जो चलता रहा वो दूसरा ही जिस्म था,
भूल से अपना  जिसे साया समझ बैठे थे हम.

हमज़बाँ, हमराज़, हमदम, हमसफ़र और हमनशीं,
क्या बताएं आपको क्या-क्या समझ बैठे थे हम.

आपकी फ़ितरत के चेहरे थे कई समझे नहीं,
जो था शाने पर उसे चेहरा समझ बैठे थे  हम.

आप ख़ुद जैसे थे वैसा ही हमें समझा किए,
ख़ुद थे जैसे आपको वैसा समझ बैठे थे हम.

सोचते हैं अब कि कैसे बेख़ुदी में आपको,
अपनी तन्हा उम्र का रस्ता समझ बैठे थे हम.

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Monday 7 July 2014

जब भी ख़त के जवाब पढ़ता था,
अपनी आँखों के ख़्वाब पढ़ता था.

वो मदरसा कभी गया ही नहीं,
बस वो दिल की क़िताब पढ़ता था.

उसका जलवा-ए-नूर था ऐसा,   (जलवा-ए-नूर = रौशनी का जलवा)
उसको ख़ुद आफ़ताब पढ़ता था.    (आफ़ताब = सूरज)

तुमने चेहरे पढ़े हैं लेकिन वो,
उन पे जो थे नक़ाब पढ़ता था.

नेकियाँ करके उसके बदले में,
क्या मिलेगा सबाब पढ़ता था.    (सबाब = पुण्य)

शौक़  कितना अजीब था उसका,
मुझको, पीकर शराब पढ़ता था.

वक़्त जैसा मिजाज़ था उसका,
वो ग़ज़ल सबके बाद पढ़ता था.

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Sunday 6 July 2014

जो हैं बंद कबसे वो घर बोलते हैं,
गुनाहों में भीतर के डर बोलते हैं.

जो हैं बोलने वाले सच्चाईयों के,
ज़ुबां कट भी जाए मगर बोलते हैं.

हवा जब गुज़रती है तन्हाइयों से,
नदी के किनारे शजर बोलते हैं.     (शजर = पेड़)

परिंदों को मंज़िल मिलेगी यक़ीनन,
ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं.

इन्हें आबो-दाना है मिलता जिधर से,
ये पंछी हमेशा उधर बोलते हैं.

वही लोग रहते हैं ख़ामोश यारो,
ज़माने में जिनके हुनर बोलते हैं.

बुलंदी पे कितने थे उनके इरादे,
ये काटे हुए उनके सर बोलते हैं.

हैं कैसी अजब बस्तियाँ ये शहर की,
ना आपस में जिनके बशर बोलते हैं.    (बशर = लोग)

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Thursday 3 July 2014

रेत के ऊपर उड़ते बादल जैसा तू,
या फिर माँ के उड़ते आँचल जैसा तू,

घुंघरू बनकर बज उठते हैं शाम-सुबह,
दुल्हन के पांवों की पायल जैसा तू.

ताक में जैसे जलता दीया रखा हुआ,
और दीये में पलते काजल जैसा तू.

तुझमें उगे हुए पेड़ों के जैसा मैं,
दूर-दूर तक फैले जंगल जैसा तू.

तेरे पीछे बच्चों जैसा फिरता हूँ,
दीवाना है या फिर पागल जैसा तू.

मन मेरा है लिपटे हुए कलाये सा,   (कलाये = कलाई में बाँधने वाला धागा)
मुझमें उगे हुए इक पीपल जैसा तू.

मुझमें ग़ज़लों का गुलज़ार बगीचा है,
कूक रहा है जिसमें कोयल जैसा तू.

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Wednesday 2 July 2014

उम्र का इक-इक लम्हा रोता रहता है,
बहते हुए भी दरिया रोता रहता है.

मेरे क़दमों मी मायूसी को पढ़कर,
सफ़र में अक्सर रस्ता रोता रहता है.

अजब शख्स है हँसता भी है तो उसके,
कंधे पर इक चेहरा रोता रहता है.

कौन है ये दीवाना जो मुझमें आकर,
तन्हा बैठ के हँसता-रोता रहता है.

गाँव छोड़ कर जब से शहर गई है माँ,
तुलसी का इक पौधा रोता रहता है.

कमरे में माँ-बाप ठिठोली करते हैं,
घर की छत पर बच्चा रोता रहता है.

पेड़ों को अहसास है इसका शिद्दत से,
शाख़ से टूट के पत्ता रोता रहता है.

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DD Rajasthan Mushaira in Which Surendra Chaturvedi Participated

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Tuesday 1 July 2014

तुझसे जब-जब भी आशिक़ी होगी,
मेरे होठों पे शायरी होगी.

मैं हूँ सूरज ये मैंने जान लिया,
मैं जलूँगा तो रौशनी होगी.

भीगता मैं रहुंगा भीतर से,
ऐसी बरसात भी कभी होगी.

लौट आया है तू जुदा होकर,
मुझमें कुछ बात तो रही होगी.

मैं किनारों की शक्ल ले लूँगा,
पास जब नूर की नदी होगी.

मुझको जिस हाल में रखेगा तू,
मुझको उस हाल में ख़ुशी होगी.

मैं समंदर को पी के प्यासा रहूँ,
मेरी ख्वाहिश ये आख़िरी होगी.


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