Monday 7 July 2014

जब भी ख़त के जवाब पढ़ता था,
अपनी आँखों के ख़्वाब पढ़ता था.

वो मदरसा कभी गया ही नहीं,
बस वो दिल की क़िताब पढ़ता था.

उसका जलवा-ए-नूर था ऐसा,   (जलवा-ए-नूर = रौशनी का जलवा)
उसको ख़ुद आफ़ताब पढ़ता था.    (आफ़ताब = सूरज)

तुमने चेहरे पढ़े हैं लेकिन वो,
उन पे जो थे नक़ाब पढ़ता था.

नेकियाँ करके उसके बदले में,
क्या मिलेगा सबाब पढ़ता था.    (सबाब = पुण्य)

शौक़  कितना अजीब था उसका,
मुझको, पीकर शराब पढ़ता था.

वक़्त जैसा मिजाज़ था उसका,
वो ग़ज़ल सबके बाद पढ़ता था.

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