Tuesday 15 July 2014

देखने को दम कितना, दुश्मनों की ताक़त में,
पेश आ रहे हैं हम अब तलक शराफ़त में.

पढ़ते हो उदास चेहरे, चुप्पियों को सुनते हो,
सुनके ये चले आये, आपकी अदालत में.

नीयतों की नींव पे खड़ी, अज्म और ज़मीर से बनी,    (अज्म = आत्म-सम्मान)
अमनो-चैन रहता है, दिल की इस इमारत में.

जुगनुओं के कुनबों में, ऐसे भी कई होंगे,
तीरगी में ग़ुम हो गए, रौशनी की चाहत में.    (तीरगी = अँधेरा)

मंदिरों में क्या जाते, मस्ज़िदों में क्या करते,
उम्र  काट ली हमने, इश्क़ की इबादत में.

वो दीये क्या आयेंगे, आँधियों की ज़द में कभी,
जो रहे हवाओं की, हर घड़ी हिफ़ाज़त में.

फ़ितरतें फ़कीराना, आदतें अमीराना,
हम रहे हैं ख़ुद की ही, उम्र भर निज़ामत में.

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