Thursday 17 July 2014

सुखी रेत पे ज़िन्दा मछली होती है,
सुख-दुःख की जब अदला-बदली होती है.

अपनी इज़्ज़त  रही उम्र भर ऐसे ही,
ज्यों यतीमखाने में लड़की होती है.

यही सोच के हवा को रोका नहीं कभी,
उजड़े घर में टूटी खिड़की होती है.

समझ गए थे कच्चे घर के छप्पर भी,
भरे हुए बादल में बिजली होती है.

ज़ख़्मी थे अहसास कि जैसे बच्चे की,
फंसी हुई पहिये में उंगली  होती है.

इसी ग़लतफ़हमी में धोका खा बैठे,
रोने की आवाज़ तो असली होती है.

उस बेटी का ख़ुदा मुहाफ़िज़ होता है,    (मुहाफ़िज़ = रक्षक)
जो बेटी माँ-बाप की लकड़ी होती है.

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