Monday 2 June 2014

जिस्म जुदा हो जाए तो होता है क्या,
रूह से जुड़कर रिश्तों को सोचा है क्या.

मेरे अश्क़ पौंछने तो तुम आए हो,
बहते दरिया को तुमने रोका है क्या.

ना फटती, ना मैली होती, ना धुलती,
तुमने ऐसी चादर को ओढ़ा है क्या.

तुझमें मेरा होना भी अब पूछे है,
तेरे मेरे बीच कोई पर्दा है क्या.

मेरी आँखों में भी आँखें डाल ज़रा,
हाथों से आँखें ढक कर रोता है क्या.

मांझी के अंधे यक़ीन ने तुझको भी,
बीच भंवर में ले जाकर छोड़ा है क्या.

मेरे हर इक शेर पे आँहें भरता है,
मेरी ग़ज़लों से तेरा रिश्ता है क्या.

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