Sunday 18 May 2014

सूखी शाख़ पे जब पत्ता फूटा होगा,
उसने मेरे बारे में सोचा होगा.

यही सोच कर और किसी से नहीं मिला,
मैं तन्हा हूँ, वो भी तो तन्हा होगा.

मैं सुनता हूँ उसको गर तन्हाई में,
वो मुझको ख़ामोशी में सुनता होगा.

मेरे पास पुराना सब महफ़ूज़ है तो,        (महफ़ूज़ = सुरक्षित)
उसके पास भी गुज़रा हर लम्हा होगा.

गुमसुम हो जाता हूँ मैं भी शाम ढले,
किसी शाम वो भी उदास होता होगा.

मेरे अश्क़ सुखाने को गर सहरा है,
उसके पास भी रोने को दरिया होगा.

मिलकर भी जब मिल ना सके हों इक लम्हा,
वापस मिल जाने से भी अब क्या होगा.

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