Wednesday 21 May 2014

होकर मैं अपने आप से रुसवा चला गया,
तन्हाईयों के शहर में तन्हा चला गया.

कोई तो बात उसमें यक़ीनन ज़रूर थी,
सजदे में उसके, सर मेरा झुकता चला गया.

अफ़साना मेरा हो गया इस तरहा मुक़म्मल,
कहता रहा मैं और वो सुनता चला गया.

माना गया है वो मेरे घर से तो आज ही,
दिल से मगर वो दूर तो कब का चला गया.

क़तरे की प्यास है उसे कहता तो यही था,
दरिया को पीके शख्स जो प्यासा चला गया.

जिस दिन से पंछियों ने कहा अलविदा मुझे,
उस दिन से मेरे घर का सवेरा चला गया.

इक तू गया तो उम्र भी उदास सी लगी,
वरना तो मेरी ज़ीस्त से क्या-क्या चला गया.     (ज़ीस्त = ज़िंदगी)

मेरे लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl

No comments:

Post a Comment