Tuesday 19 August 2014

ज़ेहन में मेरे सूरज बन कर उगता है महबूब मेरा,
मेरी तन्हाई को रोशन करता है महबूब मेरा.

ज़मीं,आसमां ,पर्वत,दरिया ,बादल गिरते झरनों में,
नज़रें जहाँ-जहाँ भी जाएँ ,दिखता है महबूब मेरा.

इश्क़ में प्यास की शिद्दत बढ़ कर ,जब मुक़ाम पे आती है,
सहराओं में दरिया बन कर ,बहता है महबूब मेरा.

ना जाने कैसे ढल जाता ,मेरा सफ़र नमाज़ों में ,
ज़ख्मी पांवों से मेरे जब चलता है महबूब मेरा .

तलबगार मैं उसका हूँ या तलबगार वो है मेरा ,
पता नहीं लेकिन ख़ुद आकर मिलता है महबूब मेरा.

मेरी तो हर सांस उसे ही कहती है महबूब मगर,
देखूं कब महबूब मुझे भी कहता है महबूब मेरा .

दिल के हर कोरे काग़ज़ पे अहसासों के रंगों से ,
ऊँगली मेरी पकड़ के ग़ज़लें लिखता है महबूब मेरा .

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