Sunday 3 August 2014

माना ये कि शापित चम्बल, ना तू है ना मैं ही हूँ,
लेकिन सच है कि गंगाजल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

मिट्टी के दीयों ने सारी रात जलाकर पाला था,
माँ का वही बनाया काजल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

भीतर से भी खुल सकते हो, बाहर से भी खुलते हों,
ऐसे दरवाज़े की सांखल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

अपनी-अपनी खुशबु से पहचान बना ली दोनों ने,
चन्दन वन जैसा विन्ध्याचल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

साँसों की सुर-ताल के आगे, बजती है जो हर इक पल,
समय के पांवों की वो पायल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

दूर देश से आकर बरसें, खेतों और खलिहानों में,
बरसने वाला वो इक बादल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

बूढ़े इक फ़क़ीर ने जिसको, ओढ़ा और बिछाया था,
रूह में लिपटा हुआ वो कम्बल, ना तू है ना मैं ही हूँ.

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