Tuesday 22 April 2014

ऐसा नहीं कोई मंज़र महफूज़ नहीं,
शहर में बस मेरा ही घर महफूज़ नहीं.

जिनकी तलवारों से ज़ंग हटाया था,
वो कहते हैं मेरा सर महफूज़ नहीं.

बुरे वक़्त से लड़कर जीत लिया लेकिन,
घर के चूल्हों से छप्पर महफूज़ नहीं.

आग लगी नींदों में ख़्वाब सुलगते हैं,
फूलों वाला अब बिस्तर महफूज़ नहीं.

ख़ुद्दारी के महल तो ऊँचे हैं फिर भी,
किसी इमारत का पत्थर महफूज़ नहीं.

वापस लौटा दो कबीर को तुम जाकर,
कह दो अब उसकी चादर महफूज़ नहीं.

कौन बता महफूज़ है तेरी दुनिया में,
इस सवाल का उत्तर भी महफूज़ नहीं.

मेरी ग़ज़लों के लिए आप मेरा पेज देख सकते हैं.
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