Sunday 20 April 2014

हदें तोड़ कर दूर-दूर तक फैला है,
बिना किनारों वाला मुझमें दरिया है.

कई परिन्दे परवाज़ों पर आते हैं,
मुझमें जैसे आसमान का रस्ता है.

अपना चेहरा कहाँ भूल आया हूँ मैं,
मेरे शाने पर ये किसका चेहरा है.

जिस पल तुमने मुड़कर मुझको देखा था,
इन आँखों में फ़क़त वही इक लम्हा है.

अंदर की दुनिया ही है सच्ची दुनिया,
बाहर की ये दुनिया तो फिर दुनिया है.

मुझको मेरे बाद ज़माना ढूंढेगा,
ये ख़याल भी ग़ालिब कितना अच्छा है,

मैं कबीर की चादर ले तो आया हूँ,
मगर ओढ़ने में मुझको डर लगता है.

No comments:

Post a Comment