Friday 18 April 2014

जब भी कहीं बारिश का मौसम आता है,
मुझमें इक जंगल ज़िन्दा हो जाता है.

जुबां पे दिल की बातें ऐसे आतीं हैं,
जैसे बच्चा बातों में हकलाता है.

मेरा घर अब लौट के तेरे आने तक,
दरवाज़ों को देख के दिल बहलाता है.

कितना मौसम रो पड़ते हैं तब मुझमें,
जब कोई पत्तों को आग लगाता है.

उसी वक़्त पर उगता है मेरा सूरज,
सुबह नींद से जब बच्चा उठ जाता है.

शाम ढले घर आकर दीप जलाऊं मैं,
तुलसी का पौधा मुझको समझाता है.

कैसे घर में उम्र काट ली मैंने भी,
जिसमें कोई आता है ना जाता है.


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