Sunday 6 April 2014

जाने कौनसे मुझमें ख़ज़ाने ढूंढें है,
रोज़-रोज़ मिलने के बहाने ढूंढें है.

जब से बस्ती में लौटा है जंगल से,
हर घर में जाकर वीराने ढूंढें है.

आँखों में आज़ादी क़ैद रहे चाहे,
पिंजरे में भी पंछी दाने ढूंढें है.

अपने चेहरे से शर्मिंदा है इतना,
शीशों के घर में तयखाने ढूंढें है.

ख़ुद की कहानी रखकर मेरी आँखों में,
जाने वो किसका अफ़साने ढूंढें है.

किसकी इबादत में है गुम वो ही जाने,
मस्ज़िद से आकर बुतखाने ढूंढें है.

मंदिर-मस्ज़िद गुरुद्वारों में तुम जाओ,
अपना दिल तो अब मयखाने ढूंढें  है.

No comments:

Post a Comment