Wednesday 23 April 2014

हर इक दिल में दबे खजाने मिलते हैं,
जिस घर में तेरे दीवाने मिलते हैं.

इन यादों के क़िलों में क्या-क्या ढूंढोगे,
तयखानों में भी तयखाने मिलते हैं.

शहर की जिन दीवारों को पढ़ता हूँ मैं,
लिखे हुए तेरे अफ़साने मिलते हैं.

ख़ुद के ख़ालीपन को भर लेते इनमें,
जब हमको ख़ाली पैमाने मिलते हैं.

जब भी गुज़रते हैं हम वफ़ा के रस्तों पर,
ज़ख्म नए और दर्द पुराने मिलते हैं.

हर सूरत जानी पहचानी लगती है,
इतनी शक्लों में वीराने मिलते हैं.

नए दौर  के शहर में बाहर मत ढूंढो,
यहाँ घरों में भी मयखाने मिलते हैं.

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