फ़र्क नहीं पड़ता है अब दिन-रातों में,
ज़िन्दा जब हैं हम मुर्दा हालातों में.
धूप में भी तो बर्फ़ पिघलती है हम में,
आग बरसने लगती है बरसातों में.
घर की छत पर पत्थर रखकर आए हैं,
तस्वीरों में फूल हैं जिनके हाथों में.
यहाँ-वहां हमशक्ल हवाएं चलती हैं,
फ़र्क कहाँ है शहरों और देहातों में.
वो ही फ़रिश्ते और मसीहा होते हैं,
खेल जो कर जाते हैं बातों-बातों में.
किसे ख़रीदें और कहाँ पर बिक जायें,
काबिज़ अब बाज़ार हैं रिश्ते नातों में.
एक अदद महफूज़ है मेरी ख़ुद्दारी,
जिसे बचाकर रक्खा है नग्मातों में.
ज़िन्दा जब हैं हम मुर्दा हालातों में.
धूप में भी तो बर्फ़ पिघलती है हम में,
आग बरसने लगती है बरसातों में.
घर की छत पर पत्थर रखकर आए हैं,
तस्वीरों में फूल हैं जिनके हाथों में.
यहाँ-वहां हमशक्ल हवाएं चलती हैं,
फ़र्क कहाँ है शहरों और देहातों में.
वो ही फ़रिश्ते और मसीहा होते हैं,
खेल जो कर जाते हैं बातों-बातों में.
किसे ख़रीदें और कहाँ पर बिक जायें,
काबिज़ अब बाज़ार हैं रिश्ते नातों में.
एक अदद महफूज़ है मेरी ख़ुद्दारी,
जिसे बचाकर रक्खा है नग्मातों में.
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